Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 39
________________ कर्म की शंका क्यों ? 'हे अग्निभूति ! तुम्हें भिन्न भिन्न दो वाक्य मिले इससे तुम भ्रम में पड़े ।' 'पुरुष एवेदं हि ग्नि यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।' इसका अर्थ तुमने ऐसा किया कि 'जो कुछ भी घटित होने वाला है वह पुरुष अर्थात् आत्मा ही हैं ।' अर्थात् जगत की सभी घटनाएँ आत्मा के ही प्रभाव से हैं, कर्मसत्ता जैसी कोई चीज ही नहीं । कर्म जैसी वस्तु जगत में यदि होती तो यहाँ वेद वाक्य में आत्मा के साथ 'ही' नहीं जोड़ा जाता; परन्तु इसमें तो 'आत्मा ही' ऐसा कह कर आत्मा को छोड़ कर अन्य कर्म, काल आदि का निषेध किया है । परन्तु दूसरी ओर तुम्हें 'स्वर्गमानोऽग्निहोत्रं जुहुयात्' आदि वाक्य मिले जिससे तुम्हें ऐसा लगा कि 'वेद में स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को अग्निहोत्र यज्ञ करने का तो कहा है, और अग्निहोत्र यज्ञ तो जब किया तभी समाप्त हो गया, इसके पश्चात् तो आत्मा ने दीर्घ जीवनयापन किया । अतः कई समय बाद में उसका गमन स्वर्ग में हुआ । तब उस अग्निहोत्र से स्वर्गगमन पुण्य कर्म के माध्यम के बिना कैसे हो सकता है ? क्यों कि यदि पुण्य नहीं परन्तु मात्र अग्निहोत्र के पुरुषार्थ वाली आत्मा ही स्वर्ग में कारण हो, तब तो आत्मा को अग्निहोत्र करते ही तुरन्त स्वर्ग मिलना चाहिए ! परन्तु स्वर्ग विलंब से होता है, और उस समय तो आत्मा अग्निहोत्र की पुरुषार्थी नहीं होती । अतः मानना चाहिये कि अग्निहोत्र से शुभ कर्म उत्पन्न होता है। इसे पुण्य कहो अथवा सौभाग्य सद्भाग्य कुछ भी कहो, इसके विपाक से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । इस प्रकार वेद की पंक्ति का अर्थ लगाना चाहिए । इससे कर्म है, वह प्रमाणित हुआ ।' 'इस प्रकार परस्पर विरोधी बातें मिलने से, हे अग्निभूति ! तुम्हें संदेह हो गया कि कर्म जैसा पदार्थ जगत में होगा या नहीं ?' अब इसमें एक प्रकार से सोचने पर हे अग्निभूति ! तुम्हें ऐसा लगता होगा कि (१) कर्म दीखते ही नहीं तो ऐसी अद्रश्य वस्तु को कैसे मानें । ( २ ) अगर मानें तब भी कर्मवस्तु घटित नहीं हो सकती; अतः मान्य नहीं । अद्रश्य का इन्कार क्यों नहीं कर सके ? पर हे गौतम अग्निभूति ! इस पर दो प्रश्न है : (अ) एक तो यह, कि जो वस्तु दिखाई नहीं देती क्या वह जगत में होती ही नहीं ? और (ब) दूसरा यह कि वह वस्तु तुम्हें दिखाई नहीं देती अतः नहीं माननी ? या किसी को भी दिखाई नहीं देती अतः नही माननी ? Jain Education International * २८* For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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