Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 17
________________ इतना होते हुए भी यदि सामने वाले सर्वज्ञ के पास कोई नई एवं आश्चर्यपूर्ण वस्तु मिले तो वहाँ झुक पड़ना । सोचते ही सोचते मार्ग पूरा हो गया और यकायक प्रभु के दिव्य समवसरण के सामने आ खड़े हुए । प्रभु को देखकर इन्द्रभूति चौंकते हैं :- ऊपर देखते हैं तो क्या दीखता है ? अनुपम, अद्वितीय, अवर्णनीय, कल्पनातीत सौन्दर्यशाली रूप धारण करने वाले, इन्द्रो द्वारा जिनके चंवर डुलाये जा रहे थे, और देवांगनाएँ जिन्हें एकटक से निरख रही थीं, ऐसे त्रिभुवनगुरु चरम तीर्थपति श्री महावीर परमात्मा को देखते ही इन्द्रभूति सोच में पड़ जाते हैं कि ये कौन होंगे ? पहिचानने का प्रयत्न करते हैं । 'क्या ये विष्णु हैं ? नहीं, विष्णु तो श्याम हैं और ये तो सुवर्ण वर्ण की काया वाले हैं । तो ब्रह्मा होंगे ? ब्रह्मा वृद्ध है और ये तो युवा लगते हैं । तो क्या उन्हें शंकर कहूं ? शंकर तो शरीर पर राख मलते है और हाथ तथा गले में सर्प रखते हैं । जब कि इनमें ऐसी एक भी बात नहीं है। तो क्या मेरु होंगे ? नहीं, मेरु तो कठिन है जब कि इनकी काया तो मक्खनपुञ्ज के समान कोमल एवं सुकुमार है । तब तो ये सूर्य भी नहीं हो सकते क्योंकि सूर्य तो देखने वाले को प्रखर ताप से तप्त कर देता है और इन्हें तो जैसे जैसे देखते हैं वैसे वैसे अधिक शीतलता का अनुभव करते हैं ! बस, तब तो ये चंद्र होंगे। चंद्र का तेज सौम्य कान्तिमय होता है | परन्तु नहीं, चंद्रमा तो कलंकयुक्त होता है, जब कि इनमें तो एक भी दोष नहीं दिखता। तो फिर ये कौन होंगे ?' इन्द्रभूति इन्हें पहिचानने की पूरी कोशिश करते हैं । इस हेतु वे अपने पढ़े हुए दर्शन शास्त्रों का मन में पुनरावर्तन करते हैं । उनमें से तुरन्त खोज निकाला कि 'हां, ये तो जैनों द्वारा मान्य सर्व दोषों से रहित अनंत गुणों से संपन्न चौबीसवें तीर्थंकर होने चाहिये ।' ढूंढ तो निकाला परन्तु अब घबराए । ‘अरे ! इनके साथ मुझे वाद करना है ?' मिथ्यात्व की सुलभता :- प्रभु को पहिचाना तो सही, परन्तु प्रमाणभूत मानने में अभी देर है । विलम्ब क्यों? मिथ्यात्व टलने में विलम्ब के कारण । पुण्य से जिनेश्वर देव का साक्षात्कार हो, परन्तु मति 'सु' न बने तब तक क्या होवे ? पूर्व भव की किसी भूल से यदि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का बंधन हो गया हो तो उसके विपाक के समय कैसी दशा होती है ? मिथ्यात्व बंधन के लिये दूर भी कहाँ जाना पड़ता है ? देश काल के नाम पर, अथवा विज्ञान के विकास युग के नाम पर, श्री सर्वज्ञ भगवान के वचन में शंका और अश्रद्धा की नहीं कि तुरंत मिथ्यात्व आत्मा के साथ चिपका नहीं । मिथ्यात्व मत की दिखाई देने वाली सुशोभित वस्तु से स्वगत की निंदा की नहीं कि फलस्वरूप मिथ्यात्व की प्राप्ति हुई नहीं । श्री संघ साधु और साधर्मिक का विनाश करो अथवा किसी को धर्म, तप, अथवा वैराग्य के रंग में से पतित करो कि लगा मिथ्यात्व । Jain Education International *६* For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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