Book Title: Gandharwad
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 30
________________ और फिर मृत देह में इनमें से एक भी नहीं ! इससे साफ पता चलता है कि ये सब चेतन आत्मा के धर्म हैं, ये आत्मा के कार्य हैं । (१५) ज्ञान, सुख, दुःख आदि गुणों के आधार स्वरूप उनके अनुरूप (मिलते जुलते ) ही दृश्य चाहिए; संभव है कि दृश्य स्पष्ट न भी दीखता हो । जैसे भीगी राख में पानी स्पष्ट नहीं दिखाई देता, परन्तु उसमें भीगापन निश्चित पानी का ही है, क्योंकि राख उसका अनुरुप द्रव्य नहीं है । इसी प्रकार शरीर में आत्मा प्रत्यक्ष नहीं, फिर भी ज्ञान - सुखादि गुणों के अनुरूप द्रव्य आत्मा ही है, जड़ शरीर के अनुरूप गुण तो रूप, रस, स्थूलता, भारीपन आदि हैं । I ( १६ ) जगत में सत् (सिद्ध) वस्तु का ही संदेह होता है, आकाश कुसुमवत् असत् वस्तु का नहीं । ‘टोकरी में आकाशकुसुम है या नहीं ?' ऐसी शंका नहीं होती । शरीर में आत्मा है कि नहीं, ऐसा संदेह होता है । वही आत्मा जैसी सत् वस्तु सिद्ध करता है । I (१७) कहीं कहीं भ्रम यानी विपरीत ज्ञान भी किसी सत् वस्तु का ही होता | जगत में चांदी जैसी वस्तु है तो दूर कलई के पतरे का टुकड़ा देख कर भ्रम होता है कि यह चांदी ही है । इसी प्रकार आत्मा जैसी वस्तु है इसी लिए नास्तिक को शरीर पर भ्रम होता है कि यह आत्मा ही है । (१८) प्रतिपक्ष भी किसी सत् सिद्ध वस्तु का ही होता है । आर्य है तभी म्लेच्छ को अनार्य कहते हैं । इसी प्रकार कहीं दया, सत्य, नीति जैसी वस्तु है तभी निर्दयता-असत्य-अनीति होने की बातें होती हैं । इसी तरह लकड़ी, मुर्दा आदि का अजीव के रूप में तभी व्यवहार हो सकता है यदि जीव जैसी कोई वस्तु हो । ( १९ ) निषेध भी कभी सत् वस्तु का ही होता है । यद्यपि यह सत् अन्यत्र हो परन्तु जहां निषेध हो वहां नहीं, जैसे- हरिलाल कहीं जीवित हो तभी कहा जाता है कि हरिलाल घर में नहीं है । कहीं डित्थ जैसी कोई सत् वस्तु ही नहीं, तो इस पर 'यहाँ डित्थ नहीं' ऐसा नहीं कहा जाता। इसी प्रकार 'देह में जीव नहीं' 'देह जीव नहीं' ऐसा, अगर जगत में जीव जैसी वस्तु हो, तभी कह सकते हैं । सारांश यह है कि 'जिसके संदेह - भ्रम - प्रतिपक्ष - निषेध हो, वह सत् सिद्ध वस्तु होती है । प्रश्न- ऐसे तो जैन कहते हैं कि 'जगत्कर्ता ईश्वर नहीं' तो क्या इस निषेध से जगत्कर्ता ईश्वर सिद्ध नहीं होता ? उत्तर - नहीं, यहाँ निषेध किसका है यह समझने योग्य है । निषेध संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष इन चार का होता है; जैसे- (१) 'घर में देवदत्त नहीं Jain Education International * १९÷ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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