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(९९) । तूने विषयों के कारण अनेक दुःख पाये हैं फिर भी तुझे उनसे ही प्रीति है (११०), तु उन्हें क्यों नहीं छोड़ता (१११)? अरे ! मात्र एक-एक इन्द्रिय -- विषय के लोभ से प्राणों की अत्यन्त दुर्गति होती है और तू, मनुष्य तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में खोया हुआ है (८६) ! अरे ! ये पंचेन्द्रिय के विषय तस्कर हैं, चोर हैं, तू इनसे अपने गुणरूपी रत्नों की संभाल कर ( २४८) । तुम मनुष्य भव पाकर भी उसे विषयों में क्यों खो रहे हो (१००) ? तुम समझो ! यदि विषय-विकार मिट जाए तो तुम्हें सहज सुख मिल जाए (८५), हे चेतन ! ये कौनसी चतुराई है कि तुम आत्मा के हित को छोड़कर विषय- भोगों में लग रहे हो (१४९) !
मोह-कषाय आदि की धातकता - हे जीव ! मोह, कषाय आदि बहुत दुःखकारी हैं, यह समझाते हुए कवि कहते हैं - जिसके प्रति तेरा राग है वह तुझे अच्छा लगता है और जिसके प्रति द्वेष है वह बुरा लगता है (२७१)। अरे भाई ! यह मोह महादुःखदायी है (१३७) । तूने बहुत तप किया, काया सुखाई. मौन रखा पर मन की शल्य, मन की कषाय नहीं गई तो सब व्यर्थ है ( २५०)। तूने महीने - महीने भर के उपवास करके अपनी काया को तो सुखा लिया पर क्रोध - मान आदि कषायों को नहीं जीता तो तेरा कार्य सिद्ध नहीं होगा ( २४२) । हे जिय ! तु क्रोध क्यों करता है ( २२५)? हे जीन, क्षमा धारण कर (२९६)। हे चेतन ! तू धन के पीछे भाग रहा है पर यह धन तेरे साथ जानेवाला नहीं है (९९)। अरे जिय ! यह लोभ कपाय महा दु:खदायी है (२९७), तू मन में संतोष धारण कर ( २९८)।
देह की पृथकता - कवि जीवों को देह और आत्मा की पृथकता समझाते हुए कहते हैं - जीव और देह दोनों की विधि पृथक् है (१०४) । यह पुद्गल देह चेतन आत्मा से भिन्न हैं, न्यारी है (१२६) 1 यह देह 'जड़ है, हमें यह ही दिखाई देती है, पर यह समझ लो कि यह 'चेतन' आत्मा से भिन्ना है (१४५), यह आत्मा घट (शरीर) में रहकर भी घट से न्यारी है (१४६)। यह देहरूपी सराय फूटी हुई है। इसमें से धर्मरूपी रतन क्यों खो रहा है (९०)? यह काया दुःखों की ढेरी है ( २५६) । यह काया अत्यन्त अपवित्र है (१०१) । हे प्राणी ! तू नित्य ही इस देह का पोषण करता है फिर भी यह निरन्तर सूखती ही जाती है और तुझे धोखा देती है (१२४) । हे प्राणी ! तुम इस देह को पाल रहे हो पर यह एक दिन जल जाएगी (५९) । इसलिए गुरु फिर समझाते हैं कि हे चेतन !
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