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दार्शनिक अवधारणा का उसकी विरोधी दार्शनिक अवधारणा के द्वारा खण्डन किया गया है । इस ग्रन्थ में जैनदर्शन की स्थिति केवल तटस्थ दृष्टा या न्यायाधीश की है जो तत्तद्वादों की खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया का दृष्टा होता है और अन्त में यह कहा है कि सभी दर्शन अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य होते हुए भी जब वे एकान्तवादी हो जाते हैं तब वे सभी मिथ्या हो जाते हैं । जब सभी दर्शनों का समन्वय होता है तभी सम्यक् दर्शन बनता है। और यही सम्यक् दर्शन ही जैनदर्शन है । इस प्रकार नयों के द्वारा जैनदर्शन सम्मत अनेकान्तवाद की सिद्धि की गई है । प्रस्तुत शैली का अनुसरण नयचक्र के अतिरिक्त अन्य जैनदार्शनिक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है । नयों की नयचक्र में वर्णित शैली का भी अनुसरण पश्चात्वर्ती अन्य जैनदर्शन के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है । पूर्ववर्ती ग्रन्थों में भी विधि एवं नियम के विभिन्न विभाजन करके नयों का वर्णन करनेवाली शैली दृष्टिगोचर नहीं होती है। इस प्रकार नयचक्र का शैलीगत् वैशिष्टय है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ १२-१३वीं शती में नष्ट हो गया होगा ऐसा अनुमान लगाया जाता है । इसकी एकमात्र सिंहसेनसूरि की टीका के आधार पर इस ग्रन्थ को पुनः संकलित किया गया है । यह सत्य है कि अभी इस ग्रन्थ के कुछ अंश त्रुटित हैं तथापि मुनि जम्बूविजयजी के अथक परिश्रम से इस ग्रन्थ का अधिकांश भाग पुनः संकलित हो पाया है । इसी को आधार बनाकर हमने अपने शोधप्रबन्ध का कार्य किया है ।
इस शोधप्रबन्ध में द्वादश अध्याय हैं । इन अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय निम्नोक्त है :
शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्याय में जैन दार्शनिक परम्परा के विकास का इतिहास देते हुए उसमें प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकार का क्या स्थान है इसे स्पष्ट किया गया है। साथ ही साथ इसमें मल्लवादी के जीवन, समय आदि पर भी विचार किया है और अध्याय के अन्त में ग्रन्थ की विषय-वस्तु को प्रस्तुत किया गया है।
इस शोधप्रबन्ध का दूसरा अध्याय बुद्धिवाद और अनुभववाद की
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