Book Title: Dharmanand Shravakachar Author(s): Mahavirkirti Acharya, Vijayamati Mata Publisher: Sakal Digambar Jain Samaj Udaipur View full book textPage 9
________________ दिशा बोध दिया है। वह इस प्रकार है - हमारी आचार्य परम्परा में प्रथम मुनिकुञ्जर आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर थे। आप आचार्य श्री महावीर कीर्तिजी के दीक्षा गुरु थे। अत: आचार्य श्री आदिसागरजी अंकलीकर ने अपनाआचार्य पद महावीर कीर्ति जी को दिया है। अतः जैन समाज में आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर की परम्परा और आचार्य शांतिसागरजी (दक्षिण) की परम्परा इस युग में निर्बाध ! चली आ रही है। किसी प्रकार का विवाद न करके दोनों आचार्य परम्परा को आगम सम्मत मानकर वात्सल्य से धर्म प्रभावना करें। आगम चक्षु साहू को महत्व देते रहे। मुख्यतया सम्मेद शिखरजी के प्रति प्रगाढ़ भक्ति को साकार रूप दिया। जिसके फलस्वरूप भगवान पार्श्वनाथ और भगवान चन्द्रप्रभु के जन्म, तप कल्याणक के दूसरे दिन पोस कृष्णा बारस को उस महा तीर्थराज सम्मेद शिखर क्षेत्र पर समाधि को प्राप्त हुए। इस युग में आचार्य पदाधिकारी की प्रथम समाधि हुई है यही इस परंपरा की विशेषताएँ हैं।Page Navigation
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