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धन्ना० ४४
ढ्यो गले, सुख लदे सुणतां कान ॥ ४ ॥ मंरुप बांध्या मोटका, पंचरंगी परगट्ट ॥ रचना न० जोवाने रसिक, श्रावे नरना यह ॥ ५ ॥
मी ॥
(करको तिहां कोटवाल. - ए. देशी. )
हवे ते धन्नाशाह, लगन दिवस जब आयो रंगशुं जी ॥ पकवाने करी पांति, पोखे परिघल प्रति नवरंगशुं जी ॥ १ ॥ उपर शालि ने दालि, तिम घृत ताजां पिरसे प्रेमशुजी ॥ व्यंजन नविनविज्ञात, आणे ने वली टाणे सहु जिमे खेमथी जी ॥ २ ॥ गोरस सरस आहार, करीने सहु को मन प्रमुदित थया जी ॥ ऊपर फोफल पान, ते लेइने सहु निज | मंदिर गया जी ॥ ३ ॥ लगन वेला थइ जाम, तव वरघोमे वधु वरवा जणी जी ॥ चढिया मन घरी चोंप, आभूषणन ते शोना प्रतिदे बनी जी ॥ ४ ॥ हय गय रथ परिवार, शेठ सामंत सचिव परिवस्या जी ॥ देतां दान नदार, सुंदर खुप ते शिर ऊपर धरयो जी ॥ ५ ॥ वाजे तूर बत्रीश, नादे अंबर सवि गाजी रह्यो जी ॥ देवध्वनिनां गीत, तेहनो वर्णन किम जाए को जी ॥ ६ ॥ जुगते लेई जान, धनपति आव्या सुसरा प्रांगणे जी ॥ सुस | रो थयो रलीयात, सासुं पण मनमें धन्य दिन ते गणे जी ॥ ७ ॥ पुंखणे पोंखी ताम, ली धा जमाइने दरषे मांयरे जी ॥ तेमी कन्या तिवार, वर कन्याने करमेलो करे जी ॥ ८ ॥
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