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धन्ना० १०४
पाली शुभमने, त्रिये सुत युत तेहो रे । देवलोके जइ रूपन्या, देवपले गुण गेहोरे ॥ मु० ॥ १५ ॥ एक नवे शिव सुख सवे, लदेशे ते निरधारो रे । चोये उल्हासे ग्रामी, ढाल कही जिन सारो रे ॥ मु० ॥ २० ॥
॥ दोहा ॥ श्रथ श्रोता जन सांजलो, शालिन सुचरित्र || देवलोक सुख नरनवे, जोगवे पुण्य पवित्र ॥ १ ॥ इसे अवसर नेपालश्री, सोदागर सुविवेक ॥ रत्नकंबल लेई क री, श्राव्या मगध सुबेक ॥ २ ॥ ग्रामागर फिरतां थकां राजगृही में रंग ॥ देखामे चहुटे डुरस, रत्नकंबलनां नंग || ३ || जोवे सहु को यतनशुं, रत्नकंबलनां रूप ॥ पूवे मूल तस प रगको, चित्तमें राखी चूंप ॥ ४ ॥ व्यापारी कहे वयाथी, सवालाख सुवर्ण ॥ एकतलो ए मूल बे, सांजलजो घरि कर्ण || ६ || मूल सुलीने शेरिया, सहुको स्थानक जाय ॥ व्यापा री कंबर ग्रही, जेव्या श्रेणिक राय ॥ ५ ॥
॥ ढाल ५ मी. ॥ ( धारा महोलां ऊपर मेह, करूखे वीजली हो लाल. - ए देशी.)
तव श्रेणिक नर राय बोलावे तेहने हो लाल बो०, किहांश्री श्राव्या शेत े सुख तुम देहने हो लाल बे ॥ तव बोल्या ते शाह अमे नेपालथी हो लाल घ०, आव्या इहां | व्यापार कारण भूपालथी हो लाल क० ॥ १ ॥ लाव्या कंबल सोल श्रमूल्य संजालता हो
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