Book Title: Dhanna Shalibhadrano Ras
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek, 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 254
________________ धन्ना० १२६ ॥ वेष घरी विधिशुं सवे, धावे वीर नजीक ॥ वांदी कहे दीक्षा दियो, श्रहो समतारस | नीक ॥ १ ॥ वीर वास ग्वीसरे, दीक्षा शिक्षा रूप || आपीने दवे नृपदिसे, देशना प्रतिहे अनूप ॥ ११ ॥ ॥ ढाल १३ मी. ॥ ( तुंगी या गिरि शिखर सोदे. - ए देशी. ) वीर मधुरी वाली जंपे, सुणे परषद बार रे ॥ हृदय विकसित करी निसुये, धन्न शालिगार रे || वीर० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ चारित्र नपर सुलो उपनय, राजगृहिमें रंग रे । धन्नोसार्थप सुगुण निवसे, जश स्त्री तस चंग रे ॥ वी० ॥ २ ॥ पूत्र चार सुरूप रूमा, धनपालने धनदेव रे ॥ घनगोपने वली धनरक्षित, करे तातनी सेव रे ॥ वी० ॥ ३ ॥ परणा विया ते पुत्रने तव, शेठे घरी मन राग रे || एक दिवसे रात्रि समये, चिंतवे महाभाग रे ॥ वी० ॥ ४ ॥ सकल नगर में मुजने पूढे, कार्य कामे लोक रे || नातिमें पिए सहु माने, वच | न न करे फोक रे || वी० ॥ ५ ॥ दवे मुजने कालधरमे, अथवा कोइक काज रे ॥ ऊपने मुज घरतो सवि, राखशे कुण राज्य रे ॥ वी० ॥ ६ ॥ योग्य जाणी जार घरनो, सोंपवो निरधार रे || विचारया विरा जार सोंपे, करी नांखे ख्वार रे || वी० ॥ ७ ॥ यतः ॥ मालि नीवृत्तम् ॥ यदि शुभमशुनंवा कूर्वतां कार्यजातं परिणतिरवधार्या यत्नतः पंमितेन ॥ - Jain Education national For Personal and Private Use Only उ० ४ १२६ jainelibrary.org

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