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जन-युग के निर्माता महावीर
युग-निर्माता का निर्मल मानस सदा ही जनमंगल की ओर गतिशील रहता है । वह उचित परंपरा को ग्रहण करने, अनुचित को तोड़ने और अनेक आवश्यक नई परम्पराओं को जन्म देने की विविध शक्तियाँ रखता है | यह बात और है कि ऐसे युग-निर्माता एक-दो ही होते हैं । युग की पुकार ही युग-निर्माता को आगे आने को विवश करती है | और ऐसे युग-निर्माता का अनुसरण युग करता ही है, अन्यथा वह युग-निर्माता कैसा ? राम, कृष्ण, महावीर तथा बुद्ध ऐसे ही युगनिर्माता हुए हैं । इन सभी महापुरुषों के द्वारा सर्वतोमुखी लोकमंगल का सृजन हुआ है और धर्म, समाज तथा राजनीति को इनसे नई दृष्टि मिली है । भगवान के रूप में इनकी अर्चना अकारण नहीं है ।
लोकमंगल की दिव्यदृष्टि एवं सृष्टि के निर्माताओं के इतिहास पर ज्यों ही एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हम अनायास ही भगवान् महावीर के युग-परिवर्तनकारी दिव्यरूप का दर्शन करते हैं । धर्म, समाज और राजनीति-तीनों ही क्षेत्र में, भगवान् महावीर, हमें क्रान्तिशील साधना से संवलित दृष्टि-गोचर होते हैं। आइए इस दिशा में हम सर्वप्रथम धार्मिक क्षेत्र पर दृष्टिपात करें।
ईसापूर्व की छठी शती सम्पूर्ण विश्व के लिए धार्मिक संक्रान्ति-काल मानी जाती है । हमारा भारत तो उस समय अत्यन्त ही व्याकुलता के दौर से गुजर रहा था | धर्म के क्षेत्र में वहाँ केवल रूढ़ियाँ मात्र शेष रह गई थीं । धर्म का तेजस्वी रूप रूढ़ियों के अन्धकार में विलीन हो चुका था । वेदाऽहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् का ज्योतिर्मय उद्घोष करने वाला राष्ट्र उस समय स्वयं अन्धकार में भटक रहा था; यज्ञ-यागादि के रूप में मूक पशुओं का बलिदान दे कर अपने लिए वह देवताओं की अनुकम्पा प्राप्त करने की विडम्बना अपना रहा था । धर्म के नाम पर यत्र-तत्र दैहिक उत्पीड़नप्रधान क्रियाकाण्डों की जयजयकार बुलाई जा रही थी। पंच पंचनखा भक्ष्या:' की ओट में अभक्ष्य वस्तु
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