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रहता । मनुष्य के विकास का इतिहास इसी विकल्प धारा पर इच्छा शक्ति पर निर्मित हुआ है । हजारों-लाखों वर्षों से चिड़ियाँ दाना चुगती हैं, पर किसी ने रोटी बनाना नहीं सीखा बन्दर लाखों वर्षों से वृक्षों पर बैठता आ रहा है, पर किसी बन्दर ने गर्मी - सर्दी वर्षा आदि से बचने के लिए घर नहीं बनाया । पक्षियों ने अपने घोंसलों में कोई सुधार नहीं किया, जमीन खोद कर घुरी या बिल बनाने वाले चूहों और अन्य जानवरों ने कोई नया सुधार या निर्माण नहीं किया । यह मनुष्य ही है, जिसके मन में कुछ नया पाने या नया करने जैसी कोई इच्छा जगी और उसकी पूर्ति के लिए उसने जी तोड़ प्रयन्त किए । फलतः वह एक दिन अपने यत्न में सफल हुआ और आगे बढ़ा । अस्तु, बिल्कुल इच्छा मुक्ति की बात रहने दी जाए । प्रश्न इच्छा के विरोध का नहीं, इच्छा के अनर्गल प्रवाह के विरोध का है । इच्छा बुरी नहीं है, इच्छा की अनर्गलता बुरी है । इच्छा की घोड़ी पर सवार होना है, उसे दौड़ाना भी है, पर दौड़ाने से पहले नियंत्रण के लिए संयम और सन्तोष की लगाम लेना जरूरी है ।
बाजार में हजारों चीजें बिकने के लिए हैं । एक से एक सुन्दर, नयनाभिराम और मूल्यवान वस्तु दुकानों पर विक्रयार्थ उपस्थित है । प्रश्न है, क्या खरीदा जाए, और क्या नहीं ? उत्तर स्पष्ट है, कि अपनी स्थिति देखिए, अपनी जेब का जायजा लीजिए । सारा बाजार एक मात्र तुम्हारे लिए ही नहीं है। तुम तो अपने को और अपनी यथार्थ अपेक्षा को देखो, परखो और तोलो । बाजार में क्या है, यह नहीं, अपितु तुम्हें क्या चाहिए, वह भी वर्तमान में और निकट भविष्य में बहुत जरूरी क्या है, यह देखों । गंगा बह रही है । जल का सागर है गंगा । तुम अपनी प्यास के मुताबिक दो-चार घूँट पानी पिओ और अपने रास्ते लगो । गंगा के सारे पानी को पीने या समेटने की चिन्ता छोड़ो । सारा जल तुम्हें ही नहीं पीना है, और बहुत हैं पीने वाले । फिर भी जो बच रहेगा और बचेगा ही, उसके लिए सागर का द्वार खुला है । जीवन यात्रा का सही पथ यही है ।
सर्व प्रथम इच्छाओं का विश्लेषण करो, कि क्या संभव है और क्या असंभव ? असंभव कल्पनाओं की तूफानी हवाओं में तिनके की तरह उड़ते रहने में कोई लाभ नहीं है । असंभव कल्पनाएँ पूर्ण नहीं होती हैं, फलतः उनके चक्कर में अधिकतर आदमी पागलपन की भूमिका में पहुँच जाते हैं । एक सज्जन मेरे परिचित हैं | दो जून खाने का भी उनके पास प्रबन्ध नहीं है । पर, जब बात
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