________________
ही कोई हिंसक नहीं हो जाता । यदि साधक अन्दर में शुद्ध है, तो बाहर की हिंसा निष्फल है- अर्थात् पाप न होने से अबन्धक है । विवेक के प्रकाश में कर्म - निर्जरा का हेतु भी है :
इतना ही नहीं, वह
न य हिंसामित्तेणं, सावज्जेणावि हिंसओ होई । सुद्धस्स उ संपत्ति अफला भणिया जिणवरेहिं ॥ सा होई निज्जरफला, अज्ज्ञत्थ-विसोहिजुत्तस्स । ओघनियुक्ति गा. ७५८-५९
यह सब वर्णन गृहत्यागी उच्च संयमी भिक्षु का वर्णन है । गृहस्थ पूर्ण रूप से ममता एवं स्वार्थ के बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता । उसे अपने राष्ट्र, समाज, परिवार, धनसंपत्ति तथा व्यक्तिगत जीवन की रक्षा के लिए आक्रमणकारी से संघर्ष करना पड़ता है । यथाप्रसंग युद्ध में भी उतरना होता है । और इसमें प्रतिपक्षी की हिंसा भी हो जाती है । महावीर का इस पर एक बोध है कि गृहस्थ को निरपराध व्यक्ति की हिंसा नहीं करनी चाहिए । निरपराध की भी निरपेक्ष, अर्थहीन हिंसा नहीं होनी चाहिए । अपराधी की ओर सापेक्ष निरपराधी की हिंसा का गृहस्थ के लिए परित्याग नहीं है । यही कृष्ण के शब्दों में धर्म्य अर्थात् धर्मयुक्त हिंसा है । महावीर की अहिंसा के मर्मज्ञ जैनाचार्य भी इसे गृहस्थ-धर्म की सीमा में ही परिगणित करते हैं । ततः पुनरदृगते सपादो विशोपकः धम. २ अधिकार ।' और यदि गृहस्थ में भी कोई अन्दर में सर्वथा स्वार्थ मुक्त एवं मोहमुक्त हो, तो उसको क्या होगा ? स्पष्ट है हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में उसकी स्थिति भी पूर्वोक्त भिक्षु की स्थिति जैसी ही होगी । व्यक्ति की शुद्धाशुद्ध की भूमिकाएँ बाह्य वेषादि पर से नहीं, अन्दर के अन्तरंग भावों पर से निर्धारित होती हैं ।
"
दो महापुरुषों में तुलना कैसे ?
विभिन्न काल और विभिन्न परिस्थितियों एवं भूमिकाओं में स्थित दो महापुरुषों की सैद्धान्तिक तुलना करना आसान नहीं है । तुलना करनी भी नहीं चाहिए । वह भी चलती कलम से की जाए, तो बिल्कुल गलत है । मैंने श्रीकृष्ण और महावीर के आत्मा से सम्बन्धित अविनाशी सिद्धान्त का और उस पर से प्रति फलित होने वाले भयमुक्ति के सन्देश का प्रतिपादन किया है ।
(१३७)
Jain Education International
"
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org