Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 256
________________ है, पापहारी है । और दूसरी ओर उसी माँ के अन्य भाग अपवित्र हैं, पापकारी हैं, जैसा कि पुरा काल में अंग, बंग, कलिंग और मगध आदि प्रदेशों के सम्बन्ध में मान्यताएँ थीं जिसकी साक्षी ये भ्रान्त श्लोक दे रहे हैं 'अंग-बंग-कलिंगेषु, सौराष्ट्र- मगधेषु च । तीर्थयात्रां विना गच्छन्, पुनः संस्कारमर्हति ।।” Ge ऐसी ही साम्प्रदायिक मान्यताओं के कारण एक दिन भारत का ही अंग रहा हुआ सिन्धु, पंजाब आदि प्रदेश पाकिस्तान बन गया है, अर्थात वह पाक है, पवित्र है और दूसरे बस समझ लीजिए विपरीत भाषा में जो हैं, सो हैं । - प्राचीन काल में मान्यताओं का जो धार्मिक उन्माद था, वह तो था ही परन्तु, आज विकसित कहे जाने वाले युग में भी वह कम नहीं है । अपितु अमुक अंशों में वह बढ़ा ही है । रोजे के दिन हैं, सिनेमा नहीं देखना चाहिए और बस धर्मोन्माद के फल स्वरूप ईरान में सिनेमा हॉल में आग लगा दी गई और सैंकड़ों ही बालक, युवा, बूढ़े, स्त्री, पुरुष चिल्लाते - चीखते जलकर भस्म हो गए । देश - कालानुसार स्थापित एवं परिवर्तित होने वाले राज्य -कानून नहीं, धार्मिक कानून चलाए जा रहे हैं, जिनके द्वारा सार्वजनिक रूप से किसी के कोड़े लगाए जा रहे हैं, किसी के हाथ, तो किसी के पैर काटे जा रहे हैं । सिनेमा देखने पर किसी की आँखें फोड़ी जा रही हैं । किसी को पत्थरों की मार से लहूलुहान किया जा रहा है, धर्मरक्षा के नाम पर धर्म- धुरन्धरों द्वारा । लगता है, सृष्टि का सर्वाधिक बुद्धिमान कहा जाने वाला मानव प्राणी पागल हो गया है । औरों की क्या चर्चा करूँ, अपने जैन समाज की स्थिति भी, मान्यताओं के भ्रमजाल से कितनी विचित्र है । दिगम्बर और श्वेताम्बर लगभग अढ़ाई हजार वर्ष हो गए, अभी तक वस्त्र का फैसला न कर सके । एक पक्ष तार मात्र वस्त्र के रहने पर भी साधु में साधुत्व नहीं मानता और इसीलिए स्त्री को भी साधुत्व एवं अर्हत्त्व की भूमिका से वंचित रखता है । दूसरा पक्ष वस्त्र धारण के लिए आवश्यकता से अधिक बल देता है । अर्हन्त प्रतिमाओं पर इसी नग्नता और अनग्नता के नाम पर भयंकर मारा-मारी है। अन्तरिक्ष के पार्श्वनाथ इसी के फलस्वरूप वर्षों से तालों बन्द हैं और कोर्टों में मुकदमे चल रहे हैं । दोनों ही पक्षों के लाखों का धन जनहित में न लगकर व्यर्थ ही अन्यत्र लग रहा है, इसे पाप-पुण्य या धर्म क्या कहा जाए, बुद्धिमान (२४३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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