Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 258
________________ महाव्रतों की भूमिका तक में पहुंच गए हैं । साम्प्रदायिक मान्यताओं का यह धर्म-पाखण्ड इतना क्रूर एवं निर्दय हो चुका है कि और मतों की बात तो छोड़ो, अपनी जैन परम्परा के ही भिन्न संप्रदायी प्यासे साधु को पानी तक पिलाने को तैयार नहीं होते हैं, अनेक उग्रतावादी धर्मध्वजी । तेरापंथ आदि भी इन्हीं मान्यताओं के व्यामोह में पड़े हैं और भिन्न परम्परा के किसी साधक को आहारादि के दान में पाप की परिकल्पना रखते हैं । यदि कहीं कुछ बदलाव आ भी रहा है, तो वह युगानुरूप मात्र ऊपर में शब्दों का बदलाव है । अन्दर में मान्यताओं की तो वही स्थिति है, उनमें कुछ भी हेर-फेर नहीं है । धर्मों को यदि धर्म रहना है, सम्प्रदाय नहीं बनना है, सम्प्रदाय का कैदी नहीं होना है, तो अपेक्षा है सत्यानुलक्षी मुक्त चिन्तन की । पक्ष-मुक्त तटस्थ चिन्तन ही साम्प्रदायिक मान्यताओं के मायाजाल से मानव को मुक्ति दिला सकता है । धर्म, स्वार्थ और अहं से जन्य द्वन्द्वों को , कलह और विग्रहों को, घृणा और वैर विद्वेषों को समाप्त कर परस्पर प्रेम, सद्भाव और सहयोग का सर्वमंगलकारी शान्तिराज्य स्थापित करने के लिए है | किन्तु, हो रहा है इसके सर्वथा विपरीत और ऐसा क्यों हो रहा है ? इसलिए हो रहा है कि हमारे विवेकहीन अन्ध श्रद्धालु मस्तिष्कों ने धर्म के पवित्र आसन पर मान्यताओं को बैठा दिया है । उन्हें सिद्धान्तों का रूप देकर भगवद् वाणी बना दिया है । प्राय: हर धर्म में गुरु-शिष्यों के, भगवान और भक्तों के अनेक ऐसे कल्पित संवाद हैं, जो आज मानव-जाति को बुरी तरह पकड़े हुए हैं । तत्त्व-प्रधान वैज्ञानिक दृष्टि से ही उक्त पकड़ से मुक्ति हो सकती है । तत्त्व-चिन्तकों को साहस के साथ आगे आना चाहिए, और इन-धर्म विरोधी मान्यताओं के विरोध में सार्वजनिक रूप से अपनी आवाज बुलन्द करनी चाहिए। मान्यताओं के दण्डप्रहार के भय से भेड़-बकरियों की तरह सिर नीचा किए भागते रहना मानसिक नपुंसकता है । यह सत्य का अपलाप है, भयंकर अपराध है, जो कभी क्षम्य नहीं हो सकता। प्रस्तुत लेखन का मेरा एकमात्र उद्देश्य सर्वसाधारण धर्मभीरु जनता को, धर्म और सिद्धान्त के नाम पर प्रचलित अन्ध-मान्यताओं की विकृतियों का परिदर्शन कराना है, ताकि धार्मिक कठमुल्लापन निरस्त हो, तथा धर्म का सही रूप उजागर हो सके । किसी सम्प्रदाय-विशेष का न मुझे खण्डन करना है और न मण्डन | असत्य के खण्डन और सत्य के मण्डन में ही मेरी लेखनी की गति है । संभव है भावना के प्रवाह में मुझसे कुछ कटूक्तियाँ हो गई हों, हो गई (२४५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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