Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 270
________________ साधु-साध्वियों द्वारा यान-प्रयोग : एक स्पष्टीकरण धर्म एक अन्तरंग पवित्र भाव है, वह आत्मीय चेतना की एक निर्धूम एवं निष्कलुष ज्योति है | अत: वह न शरीराश्रित है, न इन्द्रियाश्रित है और न साम्प्रदायिक मत-पंथों के विविध वेषों एवं विधि-निषेधों पर ही आधारित है । धर्म मोहक्षोभ से विहीन शुद्ध वीतराग भाव है, अत: उसमें उक्त शारीरिक एवं साम्प्रदायिक प्रतिबद्धताएँ कहाँ हैं ? ये सब देशकालानुरूप नैतिक व्यवस्थाएँ हैं, अत: सहकारी होने से उपधर्म तो अमुक अंश में हो सकते हैं, किन्तु आध्यात्मिक मूल धर्म नहीं | यदि ये एकान्ततः धर्म होते या धर्म के साथ इनका अविनाभावी अभेद्य सम्बन्ध होता, तो न माता मरुदेवी को गजराज पर चढ़े मुक्ति होती और न आद्य चक्रवर्ती भरत को आदर्श भवन में केवलज्ञान ही होता | दो-चार क्या, कूर्मापुत्र, इलापुत्र जैसे अनेकों उदाहरण हैं, जहाँ साम्प्रदायिक धर्म का, साम्प्रदायिक वेष-भूषा एवं विधिनिषेधों का दूर तक भी कहीं अस्तित्व नहीं है। धर्म का एक ही शुद्ध सनातन स्थिर रूप है, जबकि साम्प्रदायिक उपधर्म देशकालानुसार परिवर्तनशील हैं, यही कारण है कि एक ही धर्मशासन में अनुशास्ता आचार्यों का ही नहीं, स्वयं तीर्थंकरों का भी शासन-भेद है । उदाहरण के रूप में, भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर का ही अढ़ाई सौ वर्षों के छोटे-से अन्तराल में ही हुए विधि-निषेधों का भेद, इतिहास के पृष्ठों पर आज भी उपलब्ध है। . मैं जो परिवर्तन की बात कहता हूँ, वह धर्म के लिए नहीं है । वह तो त्रिकालाबाधित है, उसमें तो कोई परिवर्तन हो ही नहीं सकता, जो किया जाए। क्योंकि धर्म आत्मगत है, अध्यात्म है, अत: उस पर न देश का प्रभाव पड़ता है, न काल का, न किसी परिस्थिति विशेष का | वह तो इन सब बाह्य प्रभावों से अतीत है । अत: मेरे कहे गए परिवर्तन का सम्बन्ध साम्प्रदायिक उपधर्मों से है । साम्प्रदायिक नियमों के परितर्वन की बात नई नहीं है । यह परिवर्तन पहले भी होता रहा है, अब भी हो रहा है और भविष्य में भी (२५७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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