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इन्हीं दु:खद क्षणों में मेरे अन्तर्मन में साध्वियों के पद-विहार का प्रश्न उभर आया । जैन साध्वी ग्रामानुग्राम पदयात्रा करती हैं । अनेक असुरक्षित पथों से उन्हें गुजरना पड़ता है और अनेक बार अज्ञात गाँवों के बाहर ही असुरक्षित स्थानों में रात को रहना पड़ता है । उनके ऊपर क्या गुजर सकता है, कुछ सोचा है ठण्डे दिमाग से । शायद नहीं सोचा है | साम्प्रदायिक कट्टरता के मानस का तो सोच-विचार के साथ अहि-नकुलवत् शाश्वत वैर है न? यदि सोचा गया होता, तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुरक्षा की दृष्टि से, समय पर सुरक्षित स्थान में जल्दी से पहुँच जाने के विचार से, मैंने जो शीघ्रगति के यानों का उपयोग करने का सुझाव दिया था, उस पर धर्म के ठेकेदारों का इतना होहल्ला नहीं होता | धर्म-संघों के उच्च पदस्थ अधिकारी फिर भी कुछ मौन हैं, किन्तु छुटभैय्ये धर्मनाश का काफी बेतुका शोर मचा रहे हैं। उनमें से बहुतों को मैं जानता हूँ, क्या हैं वे? पर्दे के पीछे वे क्या-क्या गुलछर्रे उड़ाते हैं । प्रमाण हैं मेरे पास परन्तु मैं जानता हूँ, धर्म के नाम पर रोजी-रोटी का धंधा करने वालों के पास इस ढोंग और नटविद्या के सिवा और हो भी क्या सकता है?
कुछ अधकचरे मुखर लोगों ने जैन पत्रों में लेख लिखे हैं, लिखाए भी गए हैं। काफी भला बुरा लिखा गया है भला क्या, बुरा ही लिखने के बाद दो-चार ने पूछा है-' आखिर अमरमुनिजी इससे क्या चाहते हैं ।' मैं क्या चाहता हूँ, मातृ-जाति की, उसमें भी सब ओर से असुरक्षित पद-यात्री साध्वी वर्ग की सुरक्षा चाहता हूँ । जरा सोचे कोई, अस्सी वर्ष जैसी किनारे की उम्र में मेरे जैसा और कुछ चाह भी क्या सकता है ? जानता था, जानता हूँ कि इस बात पर मुझे यश नहीं, अपयश ही मिलने वाला है । फिर भी मैंने इस निन्दा-अपयश-अपभ्राजना का हलाहल विष पीकर भी जो साध्वियों के लिए यान-विहार का समर्थन किया है, उसके पीछे मेरी वह मानसिक पीड़ा ही है, जिसका सम्बन्ध साध्वियों पर होने वाले संभावित अत्याचार से है । संभावित क्यों ? अत्याचार हो ही रहे हैं । दूर क्यों जाएँ ? राजस्थान ( मेवाड़ मारवाड़) जहाँ जैन साधु-साध्वी अपरिचित नहीं हैं, सहस्राधिक वर्षों से उनका इधर-उधर गमनागमन है, अपेक्षया कुछ शिष्ट समाज भी है, जैन समाज का गौरव एवं प्रभुत्व भी है, वहाँ भी इन महीनों में साध्वियों के साथ अभद्र व्यवहार हुआ है, जिसका धक्का सभी समाजों, विधान सभा और संसद तक को लगा है और प्राय: सभी जैन-अजैन पत्रों में जिसकी तीखी चर्चा-विचर्चा भी हुई है । आश्चर्य है, कुछ लोग अब भी, किस मुख से, मुझसे पूछते हैं कि मैं क्या चाहता हूँ? जब
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