Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 267
________________ कुछ नहीं लेना-देना है । साम्प्रदायिक मान्यताओं के लिए ये धर्मगुरु आए दिन शास्त्रीय शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं, झूठे भावार्थ लगाते रहते हैं । इसके लिए हजारों वर्षों से पुरातन भाष्य एवं टीका आदि में प्रचलित होते आये सही अर्थों को भी झूठा कहने में इन्हें कोई संकोच नहीं है । और तो और, जहाँ अर्थ नहीं बदले जा सके, वहाँ कुछ अन्ध सम्प्रदायी गुरुओं ने शास्त्रों के पाठ ही बदल दिए हैं, अपनी ओर से मनगढंत नए पाठ भी जोड़ दिए हैं । जिन शास्त्रों पर जी रहे हैं, उनके साथ भी कम खिलवाड़ नहीं की है इन लोगों ने । अतीत के राम-लक्ष्मणों ने, कहते हैं शूर्पणखा के नाक-कान काट डाले थे और आज के धर्मगुरु कहे जाने वाले ये कलियुगी राम धड़ल्ले से अपने ही शास्त्रों के नाक-कान काट रहे हैं, उनका छविच्छेद कर रहे हैं और यह सब किया जा रहा है उन शास्त्रों के सर्वज्ञ द्वारा प्रमाणित श्रद्धा के नाम पर । दुनियादार लोगों ने कहाँ इतना झूठ बोला होगा, जितना कि सत्य के नवकोटि प्रतिपालक इन तथाकथित सत्य - भक्तों ने बोला है । क्रिया - काण्ड की स्थिति भी विचित्र है । केला आदि अनेक भोज्य फल हैं, जिनके खाने और न खाने में महाव्रतों के प्रश्न अटककर रह गए हैं। केला खाने वाले को एक धर्म गुरु साधु तक मानने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि केला खाने से इनकी दृष्टि में पहला अहिंसा महाव्रत भग्न हो जाता है । यही हाल माइक पर बोलने के सम्बन्ध में है । उपाश्रयों में ठहरने आदि पर भी झगड़े होते रहते हैं । विहार - यात्रा में रहन-सहन और खान-पान आदि की अनेक छूटें ले ली जाती हैं, परन्तु उन्हें स्वीकार किए जाने का नैतिक साहस प्रायः कम ही दिखाई देता है । रात्रि में शौच जाना है, परन्तु शुद्धि के लिए रात्रि में पानी तो नहीं रखना है । डर है यदि कोई पी ले तो ? गृहस्थ दशा में अनेक भाई-बहन चौबिहार रखते हैं । कहीं प्यास लगने पर पानी न पी लें, उस डर से क्या ये व्रती लोग घर का सारा पानी बाहर फेंक देते हैं ? कितनी विचित्र बात है, एक साधारण गृहस्थ का जितना भी आत्म-विश्वास एवं मनोबल धर्मगुरुओं में नहीं है। सारी रात गन्दगी में पड़े रहना, शुचि न करना, कौन- महान धर्म है ? आखिर इस अशुचि की कौन-सी आध्यात्मिक उपलब्धि है ? कुछ सन्त रात में शौच-शुद्धि के लिए पानी रखते भी हैं, पर छुपाकर रखते हैं । लोगों में नहीं रखने का झूठ बोलते हैं । क्यों बोलते हैं ? और क्या, प्रतिष्ठा भंग के भय से । (२५४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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