________________
परिणाम के जनक होते हैं । सर्प के काटने पर विष की एक साधारण-सी बून्द ही रक्त में प्रवेश करती है, परन्तु कुछ ही देर में वह समग्र शरीर में फैल जाती है, सारा-का-सारा शरीर विषाक्त हो जाता है । और, यदि समय पर कोई कारगर यथोचित उपचार न किया जाए, तो अन्तत: मानव के प्राण भी समाप्त हो सकते हैं । पुष्प-वाटिका में पड़ा हुआ जंगली-झाड़ी का एक नन्हा-सा बीज कंटीली झाड़ी के रूप में जब अंकुरित होता है, तो हजारों नुकीले तीखे काँटों से वह झाड़ी लद जाती है । घुन का कीड़ा कितना सूक्ष्म होता है । वह चुपचाप अदृश्य रूप से काष्ठ में लगा रहता है, ओर एक दिन मकान की छत के आधारभूत विशाल सहतीरों को भी पूरी तरह खोखला कर डालता है ।
दुर्विचार की भी यही स्थिति है । प्रारंभ में साधारण, तुच्छ, अर्थहीन लगने वाले कुविचार समय पाकर विस्तार पाते हैं, और जीवन को सब ओर के सद्गुणोंसे खोखला करके दुर्गुणों एवं दोषों से भर देते हैं । भगवान महावीर ने कहा है – बाहर के देहधारी सशस्त्र क्रूर शत्रु भी उतने भयंकर नहीं होते, जितने कि मानव के अपने मन के अन्दर के कुविचार भयंकर होते हैं, सर्वनाश के हेतु बनते हैं। मन के कुविचार आस्तीन के साँप हैं, घर के ही भेदिए विभीषण हैं । इनकी मार से बच पाना सहज नहीं है । अतः प्रबुद्ध मानव को चाहिए की वह आत्मालोचन के द्वारा निरन्तर शुभाशुभ विचारों का विश्लेषण करके अशुभ एवं अभद्र विचारों का परिमार्जन करता रहे, पश्चात्ताप की गंगा में मन के मैल को धोता रहे | जैनपरम्परा का प्रात: एवं सायं उभय-कालीन किया जाने वाला प्रतिक्रमण इसी दोषपरिमार्जन का प्रतीक है । पक्खी, चौमासी एवं संवत्सरी-पर्व पर की जाने वाली आलोचना, प्रतिक्रमण तथा क्षमापना की क्रियाएँ भी दोषों के परिमार्जन के लिए ही हैं |
महापर्व पर्युषण तो आत्म-निरीक्षण का पर्व है । मन को माँजने का, मन पर जमे हुए मल को धोकर साफ करने का पुनीत दिवस है। जिससे मनोभूमि में शुद्ध विचारों के बीज अंकुरित हो सकें, शुद्ध भावों की ज्योति प्रज्वलित हो सके और साधक निर्बाध गति से जीवन की सही दिशा में प्रगति कर सके ।
सितम्बर १९८२
(२१३)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org