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अहिंसा : एक अनुचिन्तन
____ महाश्रमण भगवान महावीर की धार्मिक एवं दार्शनिक भाषा में अहिंसा 'भगवती' है । आज भी यह दिव्य वचन — प्रश्न-व्याकरण' नामक दशम अंग श्रुत में देखा जा सकता है । भारतीय एवं जैन-दर्शन के स्वर्णिम क्षितिज के महान् प्रभाकर सूर्य आचार्य श्री समन्तभद्र महाप्रभु के उक्त दिव्य वचन को शब्दान्तर में अवतरित करते हुए अहिंसा को 'पर ब्रह्म कहते हैं - " अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् ।"
... अहिंसा साधना का आदि व्रत है । इसलिए कि इसी पर सत्य आदि अन्य सभी व्रत आधारित हैं। यह सभी नियमोपनियमों की आधारशिला है । अहिंसा से अनुप्राणित होने पर ही सत्य आदि व्रतों में व्रतत्व है | अहिंसा की दिव्य-भावना से रिक्त सत्य न सत्य है, न अचौर्य अचौर्य है, न ब्रह्म ब्रह्म है, और न अपरिग्रह अपरिग्रह है। अहिंसा मूल है, व्रत-साधना रूप कल्पवृक्ष का । अत: मूल नहीं, तो स्कन्ध, शाखा, प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि के रूप में वृक्ष का अस्तित्व ही कहाँ रहता है । “ मूलं नास्ति कुत शाखा ? नष्टे मूले नैव पत्रं न पुष्पम् ।” स्पष्ट है - अहिंसा में सभी व्रत निहित हैं । अहिंसा की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए ही व्याख्या रूप हैं अन्य व्रत | लोकोक्ति है - हाथी के पैर में . सभी पैर हैं- सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्नः । अहिंसा महत्ता, व्यापकता एवं विराटता की दृष्टि से सब व्रतों को अपने में समाहित करने वाला 'हस्तिपद' है ।
अहिंसा जितनी महान है, विराट् है, उतना ही उसका स्वरूप भी विचार की व्यापक दृष्टि से विचारणीय है | अहिंसा के सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक प्रश्न-पर-प्रश्न उठते रहते हैं, और वे परस्पर उलझते भी रहे हैं । इन्हीं उलझते प्रश्नों में से वैदिक, बौद्ध आदि परम्पराओं में यथाप्रसंग अनेक मत-मतान्तर प्रचार एवं प्रसार पाते गए । अहिंसा का सर्वतोमहान सूत्रधार जैन-धर्म भी अहिंसा के प्रश्न पर विघटन से अछूता नहीं रहा है। उसमें भी
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