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भाव अपेक्षित है साधना का प्रभुत्व से वैर है । प्रभुता से प्रभु दूर है । मुझे कहना है, यह प्रभुता और कुछ नहीं, प्रभुता का अहम् है । सर्वत्र 'मैं' को तोडो, 'मैं से बचो । 'प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय ।' साधक ! तू और तेरा प्रभु, दोनों साथ साथ नहीं रह सकते । दो में से कोई एक ही रह सकता है । तू अपने को हटा, मिटा । बस, एक अपने आराध्य प्रभु को ही रहने
जून १९७७
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