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जीवन की एकरूपता :
किमधिकम् ? भारतीय जीवन का हर अंग दूषित हो गया है, और हो रहा है । परिवार, समाज, राष्ट्र और धर्म सर्वत्र किसी-न-किसी रूप में, किसी-न-किसी अंश में कोई-न-कोई विकृति प्रवेश कर गई है । और उसका मूल बीज है-स्वार्थपरता और अप्रामाणिकता । इसी में सभी दोष प्राय: आ जाते हैं । अत: सुधार का एक ही हेतु है कि मानव अपने को स्वार्थ के धरातल से ऊपर उठाए और अपने विचार एवं आचार को प्रामाणिकता की ज्योति से प्रकाशमान बनाए । स्वार्थमुक्त प्रामाणिकता ही वह ज्योति है, जिसके समक्ष अन्धकार का कुछ भी अस्तित्व नहीं रह सकता । स्वार्थ का अर्थ लोभ है, भोगासक्ति है । और इसके लिए भगवान महावीर का सूत्र है-'लोभो सब विणासणो ।' लोभ सभी सद्-गुणों को नष्ट करने वाला है । अत: लोभ-मुक्ति विकारविमुक्ति का सर्वोत्तम सोपान है । और इसी लोभ में अन्तर्निहित है-अप्रामाणिकता । मनुष्य अप्रामाणिक किसी-न-किसी इच्छा, लोभ एवं मोह के कारण ही होता है । अप्रामाणिकता है-जीवन को दो विरोधी खण्डों में विभक्त कर देना | अन्दर कुछ और, और बाहर कुछ और, यही है अप्रामाणिकता । भगवान महावीर ने कहा था जैसे अन्दर में हो, वैसे ही बाहर में रहो-“जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।" इसी सन्दर्भ में संस्कृत-साहित्य का भी एक विचारसूत्र है-“मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।" महान आत्माएँ मन, वाणी और कर्म में एक स्वरूप रहते हैं । अत: महान होने का, पतन से बचने का वस्तुत: एक ही सूत्र है--जीवन में प्रामाणिकता का प्रामाणिकता से आचरण । ईमानदारी से । ईमानदारी का स्वीकार।'
अगस्त १९८२
(२१०)
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