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वह सांस्कृतिक गरिमा आज कहाँ है ?
भारतवर्ष की चिरागत महत्ता और गरिमा आज धूल में मिलती जा रही है । मनुष्य के मन का स्वार्थ आज सर्वग्रासी ऐसा राक्षस बन गया है कि जिसकी दृष्टि में अच्छे-बुरे का पुण्य-पाप का सारा भेद की खत्म हो गया है । हर मूल्य पर स्वार्थसिद्धि होनी चाहिए, बस, इस बात के सिवा उसे न कुछ सोचना है, और न कुछ करना है । यही कारण है कि सब ओर हत्या, लूट, बलात्कार और भ्रष्टाचार आदि कुकर्मों का साम्राज्य स्थापित होता जा रहा है । समाचार पत्रों के पृष्ठों पर, आये दिन घटित होने वाली हजारों घटनाओं में से जो चन्द घटनाएँ अंकित होती हैं, वे आज के विकृत हुए जन-मानस का वह घिनौना चित्र उपस्थित करती हैं कि शर्म से आँखे नीची हो जाती हैं ।
देश में उत्थान, उन्नति और प्रगति के नाम पर बहुत कुछ हुआ है, और हो रहा है । नगरों में आकाश चूमते बीस-बीस मंजिल के भव्य भवन बन रहे हैं, सागर जैसे हिलोरे लेते बांध बनाये गए हैं । भास्कर, रोहिणी और आर्य भट्ट जैसे उपग्रह पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर रहे हैं और वे ऋतु परिवर्तन आदि की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ अपने केन्द्रों को दे रहे हैं । भविष्य में कब कहाँ क्या तूफान, कम्पन और वर्षा आदि हो सकते हैं, इसकी सूचना भी समय से पहले मिल जाती है । विराट यंत्रों का निर्माण इतने ऊँचे स्तर पर हो रहा है कि अनेक बाय देशों को विपुल मात्रा में निर्यात किया जा रहा है । अरब और एशिया के अनेक राष्ट्रों में विशाल कल-कारखानों का निर्माण भारतीय प्रतिभाएँ कर रहीं हैं । यह सब कुछ हो रहा है, विज्ञान के भौतिक चमत्कारों का आज धरती पर जाल बिछ रहा है । परन्तु, खेद है, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर वह पतन की ओर खिसक रहा है । नैतिक मूल्यों का ह्रास इतनी तीव्रगति से हो रहा है कि सँभाले संभल नहीं पा रहा है ।
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