Book Title: Chintan ke Zarokhese Part 1
Author(s): Amarmuni
Publisher: Tansukhrai Daga Veerayatan

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Page 185
________________ पुरुष नावयानम् ।" रे मानव, तेरी गति ऊपर की ओर हो, नीचे की ओर नहीं । ठीक है मानव जैसा सोचता है वैसा ही होता है । सत्संकल्पों की अखण्ड ज्योति जिसके मनमन्दिर में प्रज्वलित है, उसके यहाँ कहाँ अंधेरा है । कौन ऐसी वस्तु या स्थिति है, जो उसे दुर्लभ-दुष्प्राप्य हो, जिससे वह वंचित हो । अथर्व वेद (११.२.२५) के ही एक अन्य ऋषि ने कहा है - " न ते दूरं, न परिष्ठाऽस्ति ते।" अर्थात् मानव ! तेरे से कुछ भी दूर नहीं है । विश्व में कौन वह वस्तु है, जो तुझ से छुपाकर अलग रख दी गई हो । वैदिक काल के ये उद्घोष मानव के सोये अन्तर्बल को झकझोर कर जगाते हैं कि भले मानुष, तू जो भी चाहेगा, वह हो जाएगा । जरा चाह कर तो देख ! आज अन्धकार है तो क्या है ? कल प्रकाश न होगा-क्या । रात बीत रही है, स्वर्णिम प्रभात आ रहा है । हर रात के बाद सुनहला सबेरा आता ही है । उसे कोई रोक नहीं सकता है । " कुछ पल का है मेहमां अंधेरा, किसके रोके रुका है सबेरा ।" रात को समाप्त होना है, सबेरे को आना है । पश्चिम में डूबा हुआ सूरज रात गुजरते ही फिर उदयाचल पर आ खड़ा होता है, अपनी हजारों-हजार किरणों को अम्बर से लेकर धरती तक सब ओर फैलाता हुआ । पतझर आया है । हरे भरे वृक्ष अपने पत्र, पुष्प, फल सब गवाँ कर दूँठ हो गए हैं । पर यह सब कितने समय तक | वसंत आता है | सब तरु एवं लताओं को पुन: पल्लवित एवं पुष्पित कर देता है । कौनसा है वह पतझर, जिसके ऊपर वसन्त नहीं आता है । चांद घटता-घटता अमावस्या को एक तरह लुप्त ही हो जाता है । पर देखते हो, जल्दी ही वह फिर अपनी विकास यात्रा प्रारंभ कर देता है, सृष्टि को अपनी दुधिया चांदनी से नहलाने लगता है | लाखों लाख नक्षत्र और ताराओं का राजा हो जाता है । वैशाख जेठ का महीना। आग बरसती है । प्रकृति झुलस जाती है । पर आषाढ़ समाप्त होते न होते नभ में बादल गरजने लगते हैं । धुंआधार बरसने लगते हैं । प्यासी धरती का उजड़ा उपवन फिर स्वर्ग का नन्दन उद्यान हो जाता है | क्या मानव के जीवन में यह सब न होगा ? दुःख आया है तो क्या सुख न आएगा ? अंधेरा आया है तो क्या उजेला न आएगा ? क्या मानव की प्रकृति में ऋतु परिवर्तित नहीं होती? क्या पतझर के बाद वसन्त और ग्रीष्म के बाद वर्षा मानव के भाग्य में नहीं आएँगी ? क्यों न आएँगी ! अवश्य आएँगी । अपेक्षा है कुछ समय के लिए धैर्य की । भले ही सब कुछ नष्ट हो जाए, पर एक धैर्य नष्ट नहीं होना चाहिए । धैर्य और आशा एक दूसरे से सम्बन्धित हैं । अथवा यों कहना चाहिए कि दोनों एक ही हैं। (१७२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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