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साथ ही पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि की चर्चा भी होती रही है, दोनों के दृष्टिकोण विचारशील पाठकों के समक्ष है | कौन कहाँ, किस भूमिका में हैं, और उसने किस भूमिका वाले व्यक्ति के लिए कहा है- यह सब गहराई से देखना-समझना है ।
कुछ स्थलों पर लगता है-शब्दभेद ही है, भावभेद जैसा कुछ नहीं है । बाहर का हिंसाकर्म और तज्जन्य पाप कुछ अर्थ नहीं रखता है | जो भी है, वह सब व्यक्ति के अपने विवेक या अविवेक पर आधारित है । भगवान महावीर और उनकी परम्परा के आचार्य उत्सर्ग, अपवाद, निरपराध, सापराघ, सापेक्ष, निरपेक्ष आदि की भूमिकाओं पर अहिंसा की अत्यन्त गहरी तलस्पर्शी विचारणा करने के बाद किस निर्णय पर पहुँचते हैं, यह पाठक ऊपर की पंक्तियों में स्पष्टतया देख सकते हैं | हाँ, एक बात अवश्य है, उक्त चर्चा का भावार्थ तथा फलितार्थ कुछ भी निकाला जाए, परन्तु महावीर कृष्ण के समान यह नहीं कहते हैं कि 'युद्धस्व' युद्ध करो । भले ही युद्ध न्याय एवं धर्म पर ही आधारित क्यों न हो। और वे ऐसा कह भी नहीं सकते । दार्शनिक चिन्तन कुछ भी हो, भाषा उनके पास श्रमण जीवन की है, संन्यास मार्ग की है । जो कृष्ण की नहीं है । यह अन्तर समझने जैसा है | महावीर सीधे साफ शब्दों में नहीं कह सकते हैं कि आत्मा अविनाशी है, देह विनाशी है । अत: आततायी को मारो, कोई पाप नहीं है । महावीर अन्दर की शुभाशुभ वृत्तियों पर अधिक लक्ष्य रखते हैं । बाहर की 'हाँ' या 'ना' की स्थूल भाषा को बिना विचारे हर कोई यों ही न ले उड़े, महावीर इसके लिए सावधान हैं ।
मार्च-अप्रैल १९७७
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