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आपने देखां, आत्मा के अविनाशी सिद्धान्त की स्थापना, श्रीकृष्ण, कितने सशक्त शब्दों में करते हैं । यह केवल नमूने के तौर पर चन्द उद्धरण हैं। वैसे गीता में दूर-दूर तक आत्मा के अविनाशी सिद्धान्त की वह दिव्य गूंज है, जो व्यक्ति को मृत्यु के भय एवं आतंक से मुक्त करती है ।
तीर्थंकर महावीर
तीर्थंकर महावीर भी आत्मा के अजर, अमर, अविनाशी सिद्धान्त के महान् उद्घोषक हैं । अपनी धर्मदेशनाओं में उन्होंने अनेक बार उक्त सिद्धान्त की घोषणा की है | आज भी वह दिव्यवाणी शास्त्र के रूप में हमारे समक्ष है । महावीर कहते हैं -
नत्थि जीवस्य नासोत्ति । उत्तराध्ययन २/२७ आत्मा का कभी नाश नहीं होता |
अन्नो जीवो अन्नं सरीरं । - सूत्रकृतांग २/११
आत्मा और है, शरीर और है । (दोनों भिन्न हैं, अत: शरीर के नष्ट होने पर आत्मा नष्ट नहीं होता। )
उस युग का एक प्रश्न था । ठीक है, आत्मा का मूलद्रव्य नष्ट नहीं होता, किन्तु वह दूसरे रूप में परिणत तो हो सकता है, जीव से अजीव तो बन सकता है । महावीर इस धारणा का भी सर्वतोभावेन निषेध करते हैं -
ण एवं भूतं वा भव्वंवा भविस्सति वा जं । जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति ।
-स्थानांग, दशमस्थान
न कभी अतीत में ऐसा हुआ है, न वर्तमान में भव्य-होने योग्य है, और न कभी भविष्य में ही होगा कि जो जीव है, वे अजीव-जड़ हो जाएँ और जो अजीव हैं, वे जीव-चेतन हो जाएँ।
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