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प्रतिक्रमणं परमौषधम्
भूल या गलती, कुछ भी कहा जाए, जीवन की एक विकृति है । यह विकृति असंख्य स्वरूपों में, कुरूपों में अविर्भूत होती है । कितनी ही बार तो यह ऐसी मोहक छवि में आती है कि भूल भूल के रूप में पहचानी भी नहीं जाती । भद्दी गन्दी करूप भूलें, कभी-कभी तो इतनी सुन्दर सुरूप वेषभूषा में मन के रंगमंच पर अवतरित होती हैं, कि साधारण व्यक्ति उनका तिरस्कार कर ही नहीं सकता । तिरस्कार के बदले उनका आदर-सत्कार करता है और अपने को इस स्थिति में धन्य समझता है । शूर्पणखा अप्सरा बन जाती है, राक्षसी से देवी का रूप धारण कर लेती है । कौन है, जो इस चमक-दमक में उसके सर्वनाशी माया जाल में न फँस जाए ? स्वयं राम ही, राम स्वरूप ही, राम के अनुयायी लक्ष्मण ही शूर्पणखा को पहचान सकते हैं, फिर भले, वह कितनी ही सर्वांग - सुन्दरी देवी के रूप में आए, उत्तेजक हाव-भाव दिखाएँ ।
संक्षेप में भूलों के तीन रूप :
भूलों के वैसे तो असंख्य रूप होते हैं । परन्तु हम यहाँ उन्हें तीन रूपों में वर्गीकृत कर लेते हैं । वर्गीकृत होने पर, भूलों के बिखरे हुए रूप जल्दी समझ लिए जाते हैं । उन्हें आसानी से पकड़ा जा सकता है, परिमार्जित भी किया जा सकता है ।
प्रथम वर्ग अज्ञान जनित भूलों का होता है । समझ कम है, बुद्धि विकसित नहीं है, भोला-भाला भद्र व्यक्ति है । वह वस्तु स्थिति को कुछ-का- कुछ समझ लेता है, और हास्यास्पद भूलें कर बैठता है । ऐसे व्यक्ति के मन में संकल्पित बुराई जैसी, किसी का अहित करने या अपना स्वार्थ साधने जैसी कोई दुर्वृत्ति नहीं होती है । फिर भी नासमझी के कारण ऐसी भूलें हो जाती हैं, जिनसे किसी का थोड़ा बहुत अहित भी हो सकता है । ऐसी अज्ञानजन्य भूलें प्राय: समाज में क्षम्य होती हैं, धर्म के क्षेत्र में भी क्षम्य ही होती हैं । नादान बालक
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