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प्रतिक्रमण परमौषधम्
मन की छोटी बड़ी सभी विकृतियाँ, जो किसी न किसी रूप में, पाप की श्रेणी में आती हैं, उनका प्रतिकार एवं निराकरण करने के लिए जैन - परम्परा में प्रतिक्रमण एक महौषधि हैं । तन की विकृति जैसे रोग है, वैसे ही काम, क्रोध, मद, लोभ आदि मन की विकृतियाँ भी मन के रोग हैं । इनकी चिकित्सा भी आवश्यक है । तन का रोग अधिक से अधिक एक जन्म-जीवन तक ही पीड़ा दे सकता है । किन्तु मन का रोग तो एक बार शुरू होने पर, यदि व्यक्ति असावधान रहा, तो हजारों-हजार, लाखों-लाख जन्मों तक परेशान करता है । भारतीय पौराणिक साहित्य की हजारों जैन-बौद्ध और वैदिक कथाएँ इसकी साक्षी हैं । अतः प्रतिक्रमण के द्वारा मानसिक विकृतियों का तत्काल परिमार्जन कर लेना आवश्यक है ।
प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीत के जीवन का ईमानदारी के साथ सूक्ष्म निरीक्षण | ज्ञान दृष्टि का बाह्य जगत के दृश्यों से हटाकर अपने अन्दर के जगत में ले जाइए, जीवन का कोना-कोना शान्त भाव से देखिए, कि कहाँ क्या गन्दगी पड़ी है । ज्यों ही कोई गन्दगी दिखाई दे, भगवान की साक्षी से, सद्गुरु की साक्षी से, अपनी अन्तरात्मा की साक्षी से तत्काल उसका पश्चात्ताप कीजिए, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान आदि के रूप में प्रायश्चित्त कीजिए । शल्य अर्थात् कांटा तो निकाल ही दीजिए । और जो व्रण अर्थात् घाव शेष रह जाए, उसको भी साफ कर दीजिए । इतना ही नहीं भविष्य में उस तथाकथित दुर्वृत्ति अर्थात् विकृति से बचे रहने का संकल्प भी लीजिए । पाप न तन में होता है, और न इन्द्रियों में होता है । मन के सिवाय पाप अन्यत्र कहीं नहीं जमा होता है । पाप की चर्बी मन पर जमती है, फैलती है । अत: इस चर्बी से जितना कोई हलका रहेगा, वह उतना ही स्वस्थ रहेगा । प्रतिक्रमण - वह प्राकृतिक चिकित्सा है, जो उक्त चर्बी के कारण स्थूल काय हुए तन को हलका-फुलका बनाती है । मैं मानता हूँ जब तक संसार की भूमिका है, मन पर रांग-द्वेष आदि की कुछ चर्बी रहेगी, लोक जीवन के लिए अमुक अंश में वह अपेक्षित भी है । बस, . सावधानी इसी बात की है, कि वह तीव्र एवं गाढ न होने पाए, उग्र न होने पाए | जैन- दर्शन की परिभाषा में राग-द्वेष रूप कषाय जब मन्द होते हैं, तो वे पुण्य होते हैं और जब वे तीव्र एवं उग्र होते हैं, तो पाप होते हैं । इसलिए इन वृत्तियों को पूर्णतया अभी समाप्त न किया जा सके, तो कम-से-कम इन्हें हलका
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