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कोई अन्य देव, दानव हो, आज तक भूखों के लिए किसी ने आसमान से रोटियाँ नहीं बरसाई हैं। समझ लो, पराश्रित तो गुलाम होता है, मालिक नहीं । तुम अपने भाग्य के खुद मालिक हो । स्वयं के श्रम में ही श्री है । ये देवी देवताओं के अन्ध-विश्वास, ये पशुबलि, ये नरबलि, ये सट्टा, जुआ, तस्करव्यापार, काला बाजार, मिलावट, धोखा, ठगी, आदि सबके सब काले कर्म श्रमहीन मनोवृत्ति की उपज हैं। श्रमहीनता सर्वाधिक जघन्य अपराध और पाप है। जिसमें अन्दर का रक्त पसीना बन कर न बहे, वह श्रम ही क्या, कर्म ही क्या? दूसरा कोई कब तक खिलायेगा? कुछ-न-कुछ करो, ऐसे खटिया पर पड़े पड़े कब तक खाओगे? भगवान ऋषभदेव के द्वारा प्रतिष्ठापित यह कर्मभूमि युग है। “अपना हाथ जगन्नाथ"। अथर्व वेद का ऋषि कहता है “अयं मे हस्तो भगवान्” 'यह मेरा हाथ भगवान् है।' यह कर्मयोग का सबसे बड़ा उद्घोष है। अपने उद्धारक आप बनो, अपना पथ स्वयं निर्माण करो, किसी पर आश्रित मत रहो, व्यवहार में या परमार्थ में सर्वत्र अपनी गतिशीलता अक्षुण्ण रखो । कर्म ही, सत्कर्म ही मानव को सच्चा मानव बनाता है। जो व्यक्ति कर्म नहीं करता समय उसे नष्ट कर देता है। साधारण मानव तो क्या, महावीर और बुद्ध जैसे कैवल्य एवं महाबोधि प्राप्त महामानव भी लोकमंगल के लिए कर्म करते रहे हैं, गाँव-गाँव, नगर-नगर, पदयात्रा करते हुए जन-जन को जीवन-जागरण का सन्देश देते रहे हैं।
कर्म से पहले से ही कर्म की सफलता एवं विफलता के कुचक्र से बचकर चलो। यह चिन्ताचक्र व्यक्ति को प्राय: निराशा के गर्त में गिरा देता है। केवल अपने निर्धारित लक्ष्य पर ध्यान रखो और चलते चलो। विघ्न आ सकते हैं, बाधाएँ आ सकती हैं। उन्हें आना ही चाहिए। उनके बिना यात्रा का आनन्द ही क्या? बिना नमक मिर्च की साग-सब्जी खाने का क्या आनन्द? दावानल तूफानों में ही पनपते हैं। जीवन का अर्थ ही संघर्ष है। जिन्दगी से संघर्ष करना सीखो। अपनी भावनाओं के मंगलमय आवेशों को अपने हृदय में संजोये हुए एक महाबली युद्धवीर के समान कर्म-पथ की बड़ी से बड़ी चुनौतियों को साहस के साथ सगर्व स्वीकार करो। जिन्होंने सत्य एवं सत्कर्म के पथ पर कदम रखा है, उनका पथ कठिनाइयों से भरा होता ही है। कठिनाइयों से घबराना, फलतः कर्म शुरू ही न करना या अघबीच में ही कर्म छोड़ देना, कायरों का काम है।
विफलता के सपने देखना बन्द करो। जिन्दा लाश मत बनो। मुर्दा लाश से जिन्दा लाश अधिक खतरनाक होती है। जिन्दा लाश खुद भी क्षण-क्षण गलती
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