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तमस् है, तो दीप जलाओ
अँधेरा है न ? काला, काजल से भी काला अँधेरा | गहरा इतना कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है | किधर चलें, किधर नहीं, कुछ पता ही नहीं चल रहा है | बैठे हैं कोने में हाथ पर हाथ धरे, और रो रहे हैं अपनी खोटी तकदीर को कि हमारे भाग्य में रोशनी है ही नहीं । न कल थी, न आज है, और न कल होगी।
किन्तु मेरे बन्धु ! इस तरह रोने से क्या होगा ? रो-रो कर तो तू यदि सागर भी भर देगा अपनी आँखों के खारे पानी से, तब भी कुछ नहीं होगा । हजार बार, नहीं लाख बार नहीं, अनन्त बार कहूँगा; कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा । करने से ही कुछ होगा। दुनिया ठाली बैठे रोने वालों की नहीं है । वह है हँसते हुए कर्म-पथ पर चलने वालों की, जीवन में कुछ कर गुजरने वालों की ।
यह ठीक है कि कर्म का चुनाव करना आसान नहीं है । कर्म का चुनाव करने में समय भी पर्याप्त लगता है । लगना भी चाहिए । यों ही आँख बन्द कर अन्धों की तरह तो नहीं चला जा सकता । परन्तु चुनाव करते-करते ही आखिर में तुम्हें मौत ने चुन लिया तो क्या होगा? अत: इधर-उधर सोचो, विचार करो, चिन्तन-मनन करो, और बस चल पड़ो, निर्धारित विचार-पथ पर। सुना है न कभी "शुभस्य शीघ्रम्। यदि संकल्पित कर्म शुभ है, मंगलमय है, स्व-पर-हितार्य है, तो फिर देर क्यों होनी चाहिए? सोच-सोच में ही समय गँवा देना, महती अज्ञानता है। भगवान महावीर भी इस विलम्बकारी सोचने के विरुद्ध हैं। सत्कर्म के लिए वे भी कहते हैं। "देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह। हे देवानुप्रिय! प्रतिबन्ध अर्थात् देर मत करो।'
बाँसुरी है, किन्तु फूंक मारोगे, तभी बजेगी न? मृदंग है, किन्तु थाप
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