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साधक को केवल सत्य का श्रोता नहीं, अपितु श्रोता की भूमिका से आगे सत्य का द्रष्टा होने की प्रेरणा देते हैं । महावीर ने सर्वत्र अपने उपदिष्ट परिबोध के लिए तर्क उपस्थित किए हैं, हेतु दिए हैं । इतना ही नहीं, गणधर गौतम ने भी महावीर से उनके द्वारा उपदिष्ट परिबोध के लिए हेतु की माँग की है । यत्रतत्र उल्लेख मिलता है - केणठेणं भंते एवं दुच्चई भगवन् किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं? क्या अब भी कोई यह कह सकता है कि महावीर तर्क से बच कर चलना चाहते हैं; वे अपने प्रस्तावित सत्य को बिना परीक्षण के यों ही मान लेने को कहते हैं ? वे मूलत: मान लेने के पक्षधर नहीं, जानने के पक्षधर
तथागत भगवान बुद्ध भी सत्य के परीक्षण के पक्षधर हैं । वे अपने शिष्यों को आँख मूंदकर अपनी बात मान लेने को नहीं कहते । उनका तो यह मुक्त उद्घोष है कि भिक्षुओ, मेरी बात भी परीक्षा करके ग्रहण करो- 'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात् ।' और वैदिक परम्परा के महर्षि व्यास भी तर्क के पक्ष में हैं। उनका कहना है कि तर्क से ही धर्म का सही अनुसन्धान हो सकता है – 'यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः ।' तर्क ही ऋषि है, ऋषि अर्थात् सत्यद्रष्टा ।
__ वर्तमान युग परीक्षण का युग है । धर्म और धर्मशास्त्र किसी भी हालत में अब परीक्षण से बच नहीं सकते । परीक्षा के द्वारा जो सच है, वह सच रह जाएगा, उसे कोई आँच नहीं आएगी । सांच को आँच कहाँ ? और जो असत्य है, उसका पर्दाफाश हो जाएगा, वह कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाएगा । अब असत्य को सत्य के सिंहासन पर बैठे रहने का अन्धयुग समाप्त हो गया है । लाख कोशिश करो, धर्मरक्षा के नाम की कितनी ही दुहाई देते फिरो, धर्म के नाम पर अधर्म का , सत्य के नाम पर असत्य का खोटा सिक्का आज के तर्कप्रधान चिन्तन के बाजार में अब चल नहीं सकेगा । आपने जरा भी परीक्षा कराने से इन्कार किया कि लोग समझ लेंगे, आपका माल असली नहीं, नकली है। आप धोखा दे रहे हैं लोगों को ।
एक सज्जन ने कहा है - अमर मुनि कभी मुनि थे, अब तो वे तर्क-मुनि हैं । श्रद्धा तो उनमें अंशमात्र भी नहीं है | तर्कमुनि कह कर वे मेरा मजाक उडाते हैं, उडाएँ। मुझे कोई इसकी चिन्ता नहीं है। कुछ लोग अपने
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