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(१२) में सम्बन्ध करने के लिए यूरोप के महात्मा बेनीडिक्ट की तरह बहुत कुछ कार्य किया हो। यदि ऐसा है तो जैन धर्म के वही मूल प्रवर्तक होगे और भगवान् महावीर स्वामी तो एक सुधारक मात्र हुए हैं, जिन्होंने पार्श्वनाथ के कार्य को समुन्नत किया।" (पृष्ठ ४८, पै० १)
(ख ) महावीर ( भगवान् ) मूल प्रवर्तक नहीं थे, उन्होंने तो केवल कुछ थोड़ा सा परिवर्तन कर के एक ऐसे मत की वृद्धि की जो उन के समय से पहिले विद्यमान था और जिस के मूलोपदेशक भगवान् पार्श्वनाथ थे जोकि तीर्थंकरों की सूची में भगवान महावीर से पहिले हुए हैं।" (एनसाईकलो पीडिया ब्रिटैनिका ११ वो संस्करण, १५ वो पुस्तक, पृष्ठ १२७ पहला कालम ) __ परन्तु जैनों के मन्तव्यानुसार काल के इस अर्द्धचक्र * में भगवान ऋषभदेव ने जो २४ तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं, पहले पहल जैनधर्म का उपदेश दिया। साथ ही यह भी उनका मत है कि उनका धर्म अनादि है।
® जैन मतानुमार सृष्टि अनादि है । उन्हों ने काल के दो भाग किये हैं:- उत्सर्पिणी अथवा उन्नतिका काल और अवपिणी अथवा अवनतिका काल । और इन दोनों को फिर छः छः भागों में विभक्त किया है जिन को पारे कहते हैं। इन में से तीसरे और चौथे बारे में २४ तीर्थङ्कर होते हैं अर्थात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल को मिला कर एक पूरे चक्र में ४८ तीर्थकर होते हैं।