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(२३) नोट को छापने की आवश्यक्ता न थी क्योंकि पहिले पत्र द्वारा हम से पूछ लेना उचित था।
अन्त में हम आपसे प्रार्थना करना चाहते हैं कि आप इस प्रकार के जैनधर्म की रक्षा के कार्यो में हमारा साथ दें क्यों कि हम जैनी पहिले हैं, श्वेताम्बर, दिगम्बर या स्थानकवासी बाद में । यदि एक भाई अपने कुटुम्ब की रक्षा केलिए किसी शत्रु का मुकाविला करता है तो दूसरे भाई को उस का साथ देना चाहिए न कि शत्रु पर अपने कुटुम्ब के छिद्र प्रगट करना क्योंकि ऐसे सौदे में दोनों को घाटा रहेगा । आप के लेख से प्रतीत होता है कि आपको ऐसा संकल्प था । कृपया इस सङ्कल्प को सदा के लिए छोड़ दीजियेगा।
भवदीय
गोपीचन्द वकील, प्रधान ।" इस के साथ ही सम्पादक महोदय का नोट भी देखने योग्य है । आप ने लिखा है :-- ___ "नोट-हम आपके शुभविचरों का हृदय से स्वागत करते हैं और ऐसे शुभ कामों में हम आपकी हर प्रकार से सहायता करने को तैयार हैं परन्तु हम यह बता देना उचित समझते हैं कि अन्याय और पक्षपात का साथ हम किसी तरह भी नहीं देसकते। हमतो यह मानते है कि आप हमारे भाई हैं परन्तु काम तो जवही चले जब आप भी हमको अपना भाई समझे। जबतक ऐसा नहीं होगा हमारा सुधार नहीं होगा-(संपादक)”