Book Title: Bharatvarsh ka Itihas aur Jain Dharm
Author(s): Bhagmalla Jain
Publisher: Shree Sangh Patna

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Page 117
________________ ( १११ ) न जाने क्या कारण हैं कि भारतवर्ष के इतिहास में जैन धर्म के साथ बहुत कम न्याय का बर्ताव होता है । इतिहास लेखक बिना देखे भाले पाश्चत्य विद्वानों के लेखों का जिनका भ्रम पूर्ण होना कोई आश्चर्य की बात नहीं, अनुवाद करडालते हैं और स्वयं वस्तुस्थिति का विचार करने, नई नई खोजों से लाभ उठाने और मध्यस्थ भाव से उस के गुण दोषों का विचार करने का कष्ट नहीं उठाते। शोक है कि हमें आप की पुस्तक को भी इसी श्रेणी में रखना पड़ता है । क्यों ? सुनिये । 1 कुछ लिखने से पहिले हम यह साफ २ बता देना चाहते कि इस पत्र द्वारा आप को नितान्त सत्य बातें बतला कर उन को अपनाने के लिये आप से सविनय अनुरोध करना ही हमारा अभिप्राय है, इस के अतिरिक्त कुछ नहीं । हमें पूर्ण विश्वास है कि आप उसी सद्भाव से हमारे शब्दों पर विचार करेंगे - जिस से यह पत्र लिखा गया है । आप ने पृष्ट ६६ से ८२ तक बौद्ध और जैन मत का वर्णन किया है । उस में निम्न लिखित वाक्य भ्रमास्पद और उस बालक ने पारसनाथ नामक साधु के किया । कुछ समय तक इस पंथ में रहा परन्तु उसके हृदय को शांति न मिली और उक्त पंथ को छोड़कर नवीन पंथ चलाने के कार्य में निमग्न हो गया । उस समय

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