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स्कूलों के लिये यह पुस्तक लिखने में जो परिश्रम किया है वह प्रशंसनीय है, विशेष कर प्रस्तावना के निम्न लिखित वाक्य:"मुझे इस ग्रन्थ के लिखने के लिये बहुत ही थोड़ा समय मिला है । वास्तव में = मास के भीतर ही मैंने इसे समाप्त किया है इस लिये इस में कई प्रकार की प्रुटियां रह जाना अनिवार्य है । जो महाशय उनकी शोर मेरा ध्यान श्राकर्षित करेंगे उनका मैं अनुग्रहीत होऊंगा और यदि द्वितीय संस्करण होसका तो उन्हें दूर करने की चेष्टा अवश्य करूंगा ।”
वास्तव में प्रत्येक लेखक को ऐसे ही अपनी सहृदयता शौर जिज्ञासुता का परिचय देना चाहिये ।
इस में कोई सन्देह नहीं कि लेखक महानुभाव अपनी तरफ से कोई कसर उठा नहीं रखते। फिर भी मनुष्यों द्वारा किये गये कार्य में त्रुटियां रह जाना संभव ही है। हमें खेद है कि आप भी इस सार्वलौकिक सिद्धांत के अनुसार धोका खा गये हैं । यद्यपि आपने लिखा है कि "The views of both the modern orientals cholars and those of the orthodox communities on variens historical points have been stated."
फिर भी हम यह लिखने का साहस करते हैं कि जैनधर्म के विषय में आपने पृष्ठ ३७ से ५६ तक जो कुछ लिखा है वह सर्वथा भूमरहित नहीं। हम आपकी सूचना के लिये नीचे वह स्थल