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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ ज्ञात होता है कि वटगोहाली ग्राममें प्रसिद्ध निग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दिका एक जैविहार था। पहाड़पुरमें खुदाईके फलस्वरूप स्वस्तिकाकार सर्वतोभद्र मन्दिर निकला है, जो सम्भवतः वही वटगोहालीका जैनविहार होगा। इन सब बातोंसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वंगप्रदेशमें जैनधर्मका बहुत प्रभाव और प्रचार था तथा यहाँ जैनधर्मके अनेक सुप्रसिद्ध केन्द्र थे। उड़ीसा
प्राचीन कालमें कलिंग जैनधर्मका प्रमुख केन्द्र रहा है। वंग और कलिंग दोनों में ही बिहारके समान किसी तीर्थंकरका कोई कल्याणक नहीं हुआ, किन्तु तीर्थंकरोंका विहार कलिंगमें बराबर हुआ। सच तो यह है कि अंग, वंग, कलिंग और मगध व्रात्य श्रमणोंके केन्द्र थे। तीर्थकरोंके सतत विहारसे इन प्रदेशोंमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंका व्यापक प्रचार हआ। अंग और वंगके समान कलिंगमें भी ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और महावीरका विहार हुआ था। डॉ. नगेन्द्रनाथ वसुके अनुसार पार्श्वनाथके कालमें मयुरभंजमें कुसुम्ब नामक क्षत्रियोंका राज्य था। यह राज्यवंश पार्श्वनाथका अनुयायी था। 'आवश्यक सूत्र' में लिखा है कि भगवान् महावीरने तोषलमें अपने धर्मका प्रचार किया था। तोषलनरेश महावीरके पिता सिद्धार्थ के बन्धु थे। तोषलनरेशने भगवान् महावीरको अपने राज्यमें धर्म-प्रचारके लिए आमन्त्रित किया था।
भगवान् महावीरने कलिंगमें जाकर धर्मोपदेश किया। उनके उपदेशसे प्रभावित होकर तोषलनरेशने कुमारी पर्वतपर भगवान्से मुनि-दीक्षा ले ली और तपस्या करके मुक्ति प्राप्त की। उनके निर्वाण-लाभ के कारण कुमारी पर्वत निर्वाण क्षेत्र बन गया। सम्भवतः कलिंग ( उड़ीसा) में कूमारी पर्वत (खण्डगिरि-उदयगिरि) ही एक मात्र निर्वाण क्षेत्र है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई तीर्थ वहाँ नहीं है।
भगवान् महावीर द्वारा प्रचारित धर्म कलिंगमें शताब्दियों तक बना रहा। यह धर्म वहाँका राष्ट्रधर्म बन गया था। जब महापद्मनन्द कलिंगको पराजित करके 'कलिंगजिन' प्रतिमाको अपने साथ पाटलिपुत्र ले गया, तो समस्त कलिंग शोक-सागरमें डूब गया। कलिंगजिनकी प्रतिमा उनके राष्ट्र-देवताकी प्रतिमा थी। वह सम्पूर्ण कलिंगवासियोंकी आराध्य प्रतिमा थी। इस घटनाके प्रायः तीन सौ वर्ष बाद खारवेलने मगधसे इसका बदला लिया। उसने मगध सम्राट् वहसतिमित्रको करारी पराजय दी और कलिंगजिनप्रतिमाको वह अपने साथ ले गया। कलिंगवासी अपने आराध्यको पाकर बहुत प्रसन्न हुए और सम्पूर्ण राष्ट्रने राष्ट्रीय उत्सव मनाया।
__इस घटनासे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैनधर्म कलिंगमें शताब्दियों तक प्रमुख धर्मके रूपमें रहा। उदयगिरि-खण्डगिरिकी गुफाओंमें अनेक जैन मुनि तपस्या किया करते थे। वहाँ उनके धर्म-सम्मेलन भी होते थे। आज कलिंगमें विभिन्न स्थानोंपर जैन-मूर्तियाँ तो उत्खननके परिणामस्वरूप मिलती हैं, किन्तु कोई प्राचीन जैनमन्दिर देखने में नहीं आया। ऐसा लगता है, वंगनरेश शशांक, चोलराज राजेन्द्र और पाण्ड्यराज जटावर्मन, सुन्दर पाण्ड्य आदि धर्मद्वेषी नरेशोंने जैनमन्दिरोंका विनाश कर दिया अथवा उन मन्दिरोंको शैव मन्दिर बना लिया। विनाशका यह चक्र छठी शताब्दीसे प्रारम्भ हुआ जो निरन्तर चलता ही रहा। इस दुश्चक्रके फलस्वरूप कलिंगसे जैनोंको या तो प्राण रक्षार्थ पलायन करना पड़ा, अन्यथा उन्हें बलात् धर्म परिवर्तन करनेको विवश होना पड़ा। इस धर्मोन्मादमें कितने धर्माग्रही लोगोंको प्राण देने पड़े, इसकी संख्याका पता नहीं लगाया जा सकता।