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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
जनककी प्रसिद्धिका एक कारण और भी है। राजा जनक अध्यात्मवादी थे। उनकी सभामें अध्यात्मकी ही चर्चा होती रहती थी। वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थोंके शुष्क और हिंसापरक क्रियाकाण्डोंसे जनता-विशेषतः क्षत्रिय वर्ग और बहुसंख्यक ऋषि-महर्षि ऊब गये थे और वे उन्हें निरर्थक समझते थे। जनमानसमें जैन तीर्थंकरों-मल्लि और नमिनाथके अहिंसामय उपदेशोंने उद्वेलन उत्पन्न कर दिया था। जनकका अध्यात्म-प्रेम वस्तुतः वैदिक यज्ञवादके विरुद्ध खुला विद्रोह था । यह ऐसी मानसिक क्रान्ति थी, जिसने वैदिक पक्षके याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र आदि समर्थ ऋषियों और शकदेव-जैसे ज्ञानी योगियोंको भी अपनी ओर आकर्षित कर लिया। श्रीमद्भागवत (११।८।३४ ) में जनकपुरके आध्यात्मिक वातावरणका चित्रण करते हुए वहाँकी एक वेश्या पिंगलाके उद्गार इस प्रकार दिये हैं
विदेहानां पुरे ह्यस्मिन्नहमेकैव मूढधीः ।
यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्मादात्मदात् काममच्युतात् ॥ अर्थात् इस विदेह नगरीमें मैं ही अकेली ऐसी मूर्ख हूँ जो भगवान्को छोड़कर अन्य पुरुषको कामना करती हूँ।
इस वंशका अन्त बौद्ध ग्रन्थोंके अनुसार करालके समय हुआ। कौटिलीय अर्थशास्त्रके अनुसार विदेहके राजा करालने एक ब्राह्मण कुमारीके ऊपर अत्याचार किया। इससे प्रजा बिगड़ गयी और उसने राजाको मार डाला। इस प्रकार जनकवंशका अन्त हो गया। इस राजाके कालमें विदेह राज्यका विस्तार तीन सौ लीग था और उसमें सोलह हजार गाँव लगते थे।
इस कालमें विदेहकी सीमा पूर्वमें कौशिकी नदी, पश्चिममें गण्डकी नदी, उत्तरमें हिमालय और दक्षिणमें गंगा थी। सीमाके सम्बन्धमें अन्यत्र निम्नलिखित उल्लेख मिलता है
गण्डकीतीरमासाद्य चम्पारण्यान्तकं शिवे ।
विदेहभूः समाख्याता तैरभुक्ताभिधा तु सा ।। अर्थात् चम्पारण्यसे लेकर गण्डकी नदीके तट तक विदेहकी सीमा थी और उसीका नाम तीरभुक्ति था।
मिथिला तीर्थके नाम मिथिला, तीरभुक्ति, विदेह हैं। मिथिला विदेह और इसकी राजधानीका नाम था। सीरध्वज जनककी राजधानी जनकपुर थी। बादमें कुछ समयके लिए विदेहकी राजधानी वाराणसी हो गयो।
__ जनक-वंशकी राज्य-सत्ता समाप्त होनेपर मिथिलाकी जनताने राजतन्त्रको अस्वीकार कर दिया। उसकी सीमासे मिली हुई वैशालीमें लिच्छवि गणतन्त्र सफलतापूर्वक कार्य कर रहा था। दूसरी ओर पावा और कुशीनारामें मल्लोंके गणतन्त्र थे । ये गणतन्त्र आर्थिक और सामरिक दृष्टिसे समृद्ध थे। उनकी कोई विस्तारवादी या साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ भी नहीं थीं। विभिन्न गणतन्त्रोंका पारस्परिक व्यवहार सौहार्दपूर्ण था। दूसरी ओर राजतन्त्रमें राजाकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा ही सर्वोपरि थी। दो राजतन्त्री राज्योंमें कभी पारस्परिक सौहार्द और विश्वास नहीं हो सकता। फिर बड़े-बड़े मगरमच्छ छोटी मछलियोंको जीवित नहीं रहने देते। इन सब समस्याओं पर विचार करके मिथिलाकी जनताने अपने यहाँ गणतन्त्रकी स्थापना कर ली और उसका नाम
१. मज्झिमनिकायका मखादेव सुत्त । २. सुरुचिजातक ४७९-४०६। ३. शक्तिसंगमतन्त्र, पटल ७ । ४. Sir Monier William's Modern India, p. 131.