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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५१ इस वर्णनसे यह फलितार्थ निकलता है कि पहले सम्मेदशिखरके ऊपर बोस मन्दिर बने हुए थे और उनमें सौधर्मेन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित बीस तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ विराजमान थीं। ये मन्दिर कितने बड़े थे और इनका क्या हुआ, यह तो पता नहीं चलता। लेकिन ऐसा लगता है कि ये मन्दिर नहीं, बल्कि टोंकोंके रूपमें थे और पहले इन्हींमें मूर्ति विराजमान होंगी । पश्चात् असुरक्षा आदि कारणोंसे इन मूर्तियोंके स्थानपर चरण विराजमान कर दिये होंगे और जीर्ण होनेपर महामात्य नानूने इनके स्थानपर ही बीस टोंकें या मन्दरियाँ बनवा दी होंगी।
यतिवर्य मदनकीर्तिके कालमें सम्मेदशिखरपर एक अमृतवापिका भी थी, जिसमें भक्त लोग अष्ट द्रव्यों (जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल) से बीस तीर्थंकरोंके लिए अर्घ्य चढाते थे।
यस्याः पायसि नामविंशतिभिदा पूजाष्टधा क्षिप्यते मन्त्रोच्चारण-बन्धुरेण युगपन्निर्ग्रन्थरूपात्मनाम् । श्रीमत्तीर्थकृतां यथायथमियं संसंपनीपद्यते संमेदामृतवापिकेयमवतादिग्वाससां शासनम् ।।
-शासन-चतुस्त्रिशिका-१४ अर्थात् जिसके पवित्र जलमें निर्ग्रन्थ रूपके धारक श्री तीर्थंकरोंके क्रमिक नामोंके साथ सुन्दर मन्त्रोच्चारण-पूर्वक अष्टद्रव्यका अर्घ्य चढ़ाया जाता है और यथायोग्य रीतिसे उनकी पूजा की जाती है, वह सम्मेदगिरिकी अमृतवापिका दिगम्बर शासनकी सदा रक्षा करे ।
___ यह अमृतवापिका ही वर्तमानमें जल-मन्दिर कहलाता है । प्राचीन कालमें सम्मेदगिरिको यात्राके विवरण
भक्तजन अत्यन्त प्राचीन कालसे ही सिद्धक्षेत्र सम्मेदगिरिकी पुण्य-प्रदायिनी यात्राके लिए जाते रहे हैं। इन यात्राओंके विवरण पुराण ग्रन्थों, कथाकोषों और विविध भाषाओंमें निबद्ध यात्रा-विवरण-काव्यों तथा ग्रन्थ-प्रशस्तियोंमें मिलते हैं ।
सम्मेदशिखरकी यात्राके सन्दर्भमें संघ सहित मुनि अरविन्दका चरित्र 'उत्तर पुराण' में मिलता है । पोदनपुर नगरके राजा अरविन्द थे। उनके नगरमें वेदोंका विशिष्ट विद्वान् विश्वभूति ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र थे-कमठ और मरुभूति । मरुभूति महाराज अरविन्दका मन्त्री था। वह अत्यन्त सदाचारी, विवेकी और नीतिपरायण भद्र व्यक्ति था। इसके विपरीत कमठ दुराचारी और दुष्ट प्रकृतिका था। एक बार मरुभूतिकी स्त्री वसुन्धरीके कारण उत्तेजित होकर कमठने मरुभूतिको हत्या कर दी। मरुभूति मरकर मलय देशमें कुब्जक नामक सल्लकीके भयानक वनमें हाथी हुआ। राजा अरविन्द ने किसी समय विरक्त होकर राजपाट छोड़ दिया और दिगम्बर मनि-दीक्षा धारण कर ली। एक बार वे संघके साथ सम्मेदशिखरकी वन्दनाके लिए जा रहे थे। चलते-चलते वे उसी वनमें पहुँचे । सामायिकका समय हो जानेसे वे प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो गये। इतने में घूमता-फिरता वह मदोन्मत्त हाथी उधर ही आ निकला और मुनिराजको देखते ही वह उन्हें मारने दौड़ा। किन्तु मुनिराजके पास आते ही वह शान्त हो गया। उसकी दृष्टि मुनिराजकी छातीके वत्स लांछन पर पड़ी। यह टकटकी लगाकर उस चिह्नको देखता रहा। उसे देखकर उसके मन में अनजाने ही मनिके प्रति प्रेम उमडने लगा। सामायिक समाप्त होनेपर मुनिराजने आँखें खोलीं । वे अवधिज्ञानी थे। उन्होंने अपने अवधिज्ञानसे जानकर हाथीको उपदेश दिया और कहा-“गजराज ! पूर्वजन्ममें तू मेरा अमात्य मरुभूति था। आज तू