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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
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खारबेल और जैनधर्म
कलिंग में जिस समय खारबेलका उदय हुआ था, उस समय वहाँ जैन धर्म समुन्नत अवस्था विद्यमान था । खारबेलको वंशानुक्रमसे विरासतमें जैन धर्म प्राप्त हुआ था । उसे जैन धर्म प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ा था अर्थात् उसे यह अनायास मिल गया था । इसीलिए सही अर्थों जैन धर्मं उसके लिए अमूल्य था और उसने इसकी रक्षा भी अमूल्य निधिके रूपमें की थी। वह उसकी रानियाँ और कुमार जैनधर्मके अनुयायी थे, इसलिए जैनधर्मका प्रचार तीव्रगति हुआ ।
हाथीगुम्फाका शिलालेख खारबेलकी देखरेख में लिखा गया था । खारबेल के जीवनसे परिचित होनेका साधन इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । यदि और कोई प्रमाण रहे भी हों तो लगता है, कलिंग और दक्षिण भारतमें जैनधर्मके विरुद्ध जो शैव और वैष्णव क्रान्ति भयानक वेगसे उठी, उसमें वे सब प्रमाण धुल-पुंछकर साफ हो गये । इस क्रान्तिके फलस्वरूप अनेक जैन मन्दिरोंपर दूसरोंने अधिकार करके उन्हें परिवर्तित कर दिया, अनेक जैन ग्रन्थोंपर अधिकार करके अपना बना लिया; अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ जैनेतर देवताओंका रूप धारण करके देवायतनों
विराजमान कर दी गयी हैं । किन्तु आश्चर्य है कि खण्डगिरि और उदयगिरिको ये गुफाएँ सुरक्षित रहीं और क्रान्तिको आँधी इन्हें अपने साथ नहीं उड़ा ले जा सकी। इसलिए उन गुफाओं और उनके लेखोंने खारबेल को भी सुरक्षित रख छोड़ा है ।
हाथीगुम्फाका लेख जैनोंके मान्य 'नमो अरहंतानं, नमो सब सिधानं' इस मंगल पाठसे प्रारम्भ होता है । इससे सम्राट् खारबेलने जैनधर्मके नमस्कार मन्त्र को लक्ष्य करके अपनी भक्ति प्रदर्शित की है । इस शिलालेख में जैनधर्म मान्य चार मांगलिक चिह्न भी दिये हैं । उनके नाम हैंवर्धंमंगल, स्वस्तिक, नन्दिपद और चौथा चिह्न है चैत्यवृक्ष । वर्धमंगल जूनागढ़ की जैनगुफा के द्वारपर भी खुदा हुआ है । साँचीस्तूपके तोरण में भी यह चिह्न मिलता है । कुछ लोग इस चिह्न - त्रिशूल, त्रिरत्न या श्रीवत्स चिह्न बताते हैं । स्वस्तिक एक मांगलिक चिह्न है । ॐ शब्द रूपकके लिए और चारों गति रूप संसार के प्रदर्शन के लिए जैनोंमें इस चिह्नको सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है । नन्दिपद या नन्द्यावर्त भी ॐ के रूपकके लिए प्रयुक्त होता है । इस चिह्नको जैनोंने अधिक अपनाया है । चैत्यवृक्ष तीर्थंकरोंके समवसरणमें होते हैं। एक वृक्षके नीचे युगल-दम्पति बैठे होते हैं और वृक्षके शीर्षपर अरहन्त प्रतिमा विराजमान रहती है । यह चिह्न अनेक मूर्तियों में मिलता है और चैत्यवृक्षकी हजारों स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी मिलती हैं । इन चिह्नोंको देकर खारबेलने जैनधर्म और उसकी कलाको समुचित सम्मान प्रदान किया है।
शिलालेखकी चौदहवीं और पन्द्रहवीं पंक्ति में उनके तेरहवें वर्ष के कार्योंपर कुछ प्रकाश डाला गया है । इसमें बताया है कि कुमारीगिरिपर खारबेल, राजमहिषी, राजपुत्रों और राज्याधिकारियोंने जैन साधुओंके लिए गुफाओंका निर्माण कराया। एक निषधिका का भी निर्माण कराया। इससे खारबेल और उनके परिवारकी जैन साधुओंके प्रति अपार श्रद्धाका परिचय मिलता है ।
उदयगिरि - खण्डगिरि की गुफाएँ
खण्ड गिरि उदयगिरि नामक दो पहाड़ियाँ हैं जो उड़ीसा प्रान्तमें भुवनेश्वरसे ६ कि. मी. दूर हैं । इन दोनों पहाड़ियोंको एक सड़क पृथक् करती है । किन्तु वैसे दोनों पहाड़ियाँ अपने तल