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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०७ परिनिर्वृतं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधा ह्यथाशु चागम्य । देवतरुरक्तचन्दनकालागुरुसुरभिगोशीर्षः ॥१८॥ अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभिधूपवरमाल्यैः ।
अभ्यर्च्य गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने ॥१९।। अर्थात् वह मुनिराज महावीर कमल वनसे भरे हुए और नाना वृक्षोंसे सुशोभित पावा नगरके उद्यानमें कायोत्सर्ग ध्यानमें आरूढ़ हो गये। उन्होंने कार्तिक कृष्णके अन्तमें स्वाति नक्षत्रमें सम्पूर्ण अवशिष्ट कर्मकलंकका नाश कर अक्षय, अजर और अमर सौख्य प्राप्त किया। देवताओंने जैसे ही जाना कि भगवान्का निर्वाण हो गया, वे अविलम्ब वहाँपर आये और उन्होंने पारिजात, रक्त चन्दन, कालागुरु तथा अन्य सुगन्धित पदार्थ और धूप, माला एकत्रित किये। तब अग्निकुमार देवोंके इन्द्रने अपने मुकुटसे अग्नि प्रज्वलित करके जिनेन्द्र प्रभुकी देहका संस्कार किया। तब देवोंने गणधरोंकी पूजा की और अपने-अपने स्थानपर चले गये।
इसी संस्कृत निर्वाणभक्तिमें इसी सम्बन्धमें एक श्लोक और भी दिया गया है_ 'पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये ।
श्रीवर्धमानजिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा ।।२४॥ पावापुर नगरके बाहर उन्नत भूमिखण्ड (टोले ) पर कमलोंसे सुशोभित तालाबके बीच में निष्पाप भगवान वर्धमानने निर्वाण प्राप्त किया। ___आचार्य जिनसेनने 'हरिवंश पुराण में भगवान्के निर्वाणका जो वर्णन दिया है, उससे एक विशेष बातपर प्रकाश पड़ता है कि उस समय देवताओं और मानवोंने अन्धकारपूर्ण रात्रिमें जो दीपालोक किया था, उसीकी स्मृतिमें प्रतिवर्ष 'दीपावली' मनायी जाती है । आचार्यने 'हरिवंश' की रचना शक सं. ७०५ ( ई. सन् ७८४ ) में की थी। इतनी प्राचीन रचनामें इस प्रकारका उल्लेख प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और उससे महावीर-निर्वाणके समय जो स्थिति थी, उसका चित्र हमारे समक्ष स्पष्ट हो उठता है। पुराणकारका मूल उल्लेख इस प्रकार है
जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य संततं समन्ततो भव्यसमूहसंततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥६६।१५।। चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थमासकैविहीनताविश्चतुरब्दशेषके । स कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥१६॥ अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधय घातीन्धनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शंकरो निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ।।१७।। स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुर्विधैः । शरीरपूजाविधिना विधानतः सुरैः समभ्यर्च्यत सिद्धशासनः ।।१८।। ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।।१९।। ततस्त लोकः प्रतिवर्षमादरात प्रसिद्भदीपालिकयात्र भारते।
समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥२०॥ अर्थ इस प्रकार है
भगवान् महावीर भी निरन्तर सब ओरके भव्य समूहको सम्बोधित कर पावानगरी पहुँचे और वहाँके 'मनोहरोद्यान' नामक वनमें विराजमान हो गये। जब चतुर्थकालमें तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे, तब स्वाति नक्षत्रमें कार्तिक अमावस्याके दिन प्रातःकालमें स्वभावसे ही