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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ निरोध कर शेष समस्त कर्मोंका नाश किया और अनन्त, अविनाशी सुखदा मुक्ति प्राप्त की।
(२) एक दिन राजगृहके राजा श्रेणिक विपुलाचलपर विराजमान भगवान् महावीरके दर्शनोंके लिए गये। जाते समय उन्होंने एक वृक्षके नीचे शिलातल पर विराजमान धर्मरुचि नामक मुनिराजको देखा। श्रेणिकने उनकी वन्दना की। किन्तु मुनिराजकी मुखमुद्रा कुछ विकृत हो रही थी, अतः श्रेणिकको कुछ शंका हुई। उन्होंने भगवान्के पास आकर और दर्शन करके गौतम गगधरसे पूछा-प्रभो! मैंने एक तपस्वी मुनिके अभी दर्शन किये थे, वे कौन हैं, मेरे मनमें यह जाननेको जिज्ञासा है।
यह प्रश्न सुनकर गौतम गणधरने बताया-चम्पा नगरीमें राजा श्वेतवाहन राज्य करता था। भगवान्का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो गया और अपने पुत्रका राज्याभिषेक कर मुनिदीक्षा ले ली। उनके धर्म-प्रेमको देखकर लोगोंने उनका नाम धर्मरुचि रख दिया। आज ये मुनि एक मासके उपवासके बाद नगरमें भिक्षाके लिए गये थे। वहाँ तीन मनुष्य इनके पास आये। उनमें एक व्यक्ति जो लक्षण शास्त्रका जानकार था, बोला-"इन मुनिराजके लक्षण तो राजाओं-जैसे हैं, किन्तु ये भिक्षाके लिए भटकते फिरते हैं।" इसके उत्तरमें दूसरे व्यक्तिने कहा-“ये वास्तवमें राजा ही थे। किन्तु इन्हें वैराग्य हो गया, अतः ये राज्यका भार अपने बालक पुत्रको सौंपकर मुनि हो गये हैं।" यह सुनकर तीसरे व्यक्तिने कहा- "इसके तपसे लाभ क्या है ? इसने लोकव्यहारसे शून्य बालकको राज्य सौंप दिया है और स्वयं अपनी स्वार्थ-स्थितिमें लगा हुआ है। बेचारे बालकको मन्त्री आदिने बन्धनोंमें जकड़ रखा है और राज्यको मिलकर लूट रहे हैं।' श्रेणिक ! तीसरे मनुष्यकी बात सुनकर उन मुनिराजके मनमें रागद्वेषके विचारोंकी भयानक आँधी चल रही है। यदि आगे अन्तर्मुहूर्त तक ऐसी ही स्थिति रही तो वे नरकआयुका बन्ध करनेके योग्य हो जायेंगे। इसलिए राजन् ! तुम जाकर उन मुनिराजको समझाओ कि वे पापध्यान छोड़ दें। उनका स्थितिकरण हो जायेगा तो उनका कल्याण भी हो जायेगा।
गौतम गणधरके वचन सुनकर महाराज श्रेणिक उन मुनिराजके पास पहुंचे और उन्हें समुचित ढंगसे प्रतिबोध दे आये। मुनिराज भी सम्हलकर आत्म-ध्यानमें लीन हो गये और शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्तमें निर्वाण प्राप्त किया।
(३) राजगृह नगर में सेठ अर्हद्दास रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम जिनदासी था। उनके एक सुलक्षण, सुदर्शन पुत्र हुआ जिसका नाम जम्बूकुमार रखा गया। अनावृत्त देव उसकी पूजा करता था।
जिस दिन (कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको रात्रिके अन्तिम प्रहरमें) भगवान् महावीरका निर्वाण हुआ, उसी दिन महावीर स्वामीके मुख्य गणधर गौतम स्वामीको केवलज्ञान हो गया। वे सुधर्म आदि गणधरोंके साथ विहार करते हुए राजगृह पधारे और विपुलाचल पर्वतपर आकर विराजमान हुए। गौतम स्वामीके आगमनका समाचार सुनकर श्रेणिक राजाका पुत्र राजगृह नरेश कुणिक परिवार सहित वहाँ आया और प्रभु गौतमसे उपदेश सुनकर कुछ नियम व्रत लिये। इसी अवसरपर श्रेष्ठी-पुत्र जम्बूकुमार भी आया। उसने उपदेश सुनकर और विरक्त होकर दीक्षा देनेकी प्रार्थना की। किन्तु बन्धु-बान्धवोंने उसे समझाया कि कुछ वर्ष ठहर जाओ, उस समय हम भी
१. उत्तरपुराण ७५।६८५-६८७ । घातिकर्माणि विध्वस्य जनित्वा गृहकेवली । साधं विहृत्य तीर्थेशा तस्मिन्मक्तिमधिष्ठिते ।। विपुलाद्रौ हताशेषकर्माशर्माग्रमेष्यति । इष्टाष्टगुणसम्पर्णो निष्टितात्मा निरंजनः ।।