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बिहार-बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
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(४) उज्जयिनी नगरीका राजा धृतिषेण था । उसकी रानीका नाम अमलयती था । उन दोनोंके चण्डप्रज्ञ नामक पुत्र था । राजाने चण्डप्रज्ञको शिक्षा देनेके लिए विन्यातटवासी कालसन्दीव नामक विद्वान्को नियुक्त कर दिया, जो अठारह भाषाओंका ज्ञाता था। गुरु राजकुमार शिष्यको सभी भाषाएँ सिखायीं । शिष्यने सत्रह लिपियाँ तो सीख लीं, किन्तु यवन लिपि नहीं सीख सका । एक दिन गुरुको क्रोध आ गया । उन्होंने चण्डप्रज्ञके सिर में लात मार दी । इसपर राजकुमारको भी क्रोध आ गया, बोला- “ तुमने मेरे सिर में लात मारी है । राजा बननेपर मैं कुठारसे तुम्हारी टाँगें काहूँगा ।" गुरु बोले – “कुमार ! राजा बननेपर तू मेरे पैर का पट्टबन्ध करेगा ।"
कुछ समय पश्चात् कालसन्दीवने मुनि श्रुतसागरसे मुनि दीक्षा ले ली । चण्डप्रज्ञ राजा बन गया । एक बार एक यवन नरेशने राजा चण्डप्रज्ञको यवन-लिपिमें पत्र लिखा । किन्तु उज्जयिनीमें यवन-लिपिको समझनेवाला कोई नहीं था । तब राजाने उस पत्रको पढ़ा और उसका अर्थ समझ लिया । राजाने तब आज्ञा दी कि "तुम लोग विन्यातटपर जाकर मेरे गुरु कालसन्दीवको लिवाकर लाओ ।" दूत गये और अनुनय अनुरोध करके कालसन्दीव मुनिको लिवा लाये । जब कालसन्दीव आये, तब राजाने गुरु भक्तिवश गुरुके चरणोंपर कुंकुम चर्ची, उनके दोनों चरणोंपर गाजे-बाजे और वैभवके साथ अष्टापद-मय पट्ट बाँधा, सुगन्धित पुष्प चढ़ाये और उनकी पूजा की । फिर मन, वचन, कायसे उनके चरणों में नमोऽस्तु करके बोला – “भगवन् ! मुझे दीक्षा देने की कृपा करें ।” तब गुरुने उसे मुनि दीक्षा दी और उसका नाम श्वेतसन्दीव रख दिया ।
एक बार गुरु अपने शिष्यके साथ विहार करते हुए राजगृह पहुँचे । उस समय विपुलाचलपर भगवान् महावीरका समवसरण आया हुआ था। गुरु और शिष्य भगवान् के दर्शन करनेके लिए विपुलाचलपर पहुँचे । समवसरणके बाहर राजा श्रेणिक मिल गया । वह श्वेतसन्दीवको देखकर बोला - " नाथ ! आपने किनसे दीक्षा ली है ?" श्वेतसन्दीव बोले - "राजन् ! मेरे गुरु तो महावीर भगवान् हैं। उनके सिवाय और कोई मेरा गुरु कैसे बन सकता है।” इतना कहते ही उनका कुन्दजैसा धवल शरीर जले हुए अंगारे- जैसा हो गया । यह देखकर श्वेतसन्दीवको बड़ा विस्मय हुआ । वह गौतम गणधरके पास गया । उन्होंने कहा - " गुरु- निन्हवके महान् दोष के कारण तुम्हारा वर्ण कृष्ण हो गया है । तुम जाकर गुरुसे प्रायश्चित्त लो।" वह गुरुके पास गया । उसने शुद्ध हृदय से प्रायश्चित्त लिया और घोर तप किया। फलतः श्वेतसन्दीवको केवलज्ञान हो गया । अन्तमें निर्वाणपद प्राप्त किया।
(५) मगध में सुप्रतिष्ठपुर नगर था । नगरके बाहर उद्यान में सागरसैन मुनि ठहरे हुए थे 1 एक सियार उन्हें खानेके लिए आया । मुनिने निकट भव्य जानकर उसे उपदेश दिया और उससे कहा— " - " तू रात्रि भोजनका नियम ले ले । तेरा कल्याण हो जायेगा ।" सियारने नियम ले लिया । एक दिनकी बात है । गर्मी के दिन थे । सियारको प्यास लगी । एक बावड़ी में वह पानी पीने उतरा किन्तु वहाँ अँधेरा देखकर उसने समझा कि रात गयी । वह लौट आया । बाहर प्रकाश देखा तो वह फिर नीचे उतरा और रात समझकर वापस आ गया । इसी तरह करते-करते उसके प्राण निकल गये ।
वह मरकर उसी नगरमें धनमित्र सेठके घरमें पुत्र हुआ । प्रीतिंकर नाम रखा गया । धनकी कोई कमी नहीं थी । बड़ा होनेपर उसने भी खूब धन कमाया। एक दिन मुनिके उपदेशसे उसे
१. हरिषेण कथाकोष, कथा २२ ।