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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ पिता तेरी उस मवादसे भरी अँगुलीको रात-भर मुँहमें दबाये बैठे रहे थे। मुखकी गर्मीसे तुझे कुछ आराम मिला था और तू उनकी गोदमें सो गया था।" ___इतना सुनते ही उसे पिताके प्रति किये गये अपने अपराध पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह पिताको कारागारसे छुड़ानेके लिए दौड़ पड़ा। श्रेणिकने अपने उद्दण्ड पुत्रको आते हुए देखा तो उन्हें भय हआ कि यह आकर मझे कष्ट देगा। यह सोचकर उन्होंने अपना सिर सींकचोंपर जोरसे दे मारा । क्षुधा और कष्टोंसे वे अत्यन्त निर्बल तो हो ही गये थे। सिर पटकते ही उनका देहान्त हो गया। अजातशत्रुको अपने कृत्योंपर बड़ा दुख हुआ। उसने राजकीय सम्मानके साथ पिताकी अन्त्येष्टि क्रिया की।
अजातशत्रुने राज्यासीन होते ही आसपड़ोसके राज्योंको जीतना प्रारम्भ किया। उसने कोशल राज्यको जीत लिया। लिच्छवियोंके गणसत्ताक संघपर भी अधिकार कर लिया। लिच्छवियोंकी सैनिक गतिविधिपर नजर रखने और उन्हें दबानेके लिए इसने गंगा और सोनके संगमके निकट पाटलिग्राममें एक किला बनवाया।
श्रेणिक और अजातशत्रुके जीवन-कालमें भगवान् महावीरका विहार राजगृहमें कई बार हुआ था। अजातशत्रु अपने प्रारम्भिक जीवनमें कट्टर जैन था। उसने कई जिन-मन्दिरोंका निर्माण भी कराया था। इस विषयमें डॉ. हर्मन जैकोबीने कल्पना की है कि उसने अपने जैनधर्मी पिताको कारागारमें डाल दिया था। इससे उसे तमाम जैनोंका कोपभाजन बनना पड़ा था। अतः उसे बुद्धको शरण लेनी पड़ी होगी। अपनी राजनैतिक स्थितिकी सुदृढ़ताके लिए ऐसा करना उसके लिए आवश्यक हो गया होगा, क्योंकि राजगृहमें जैनोंके बाद सबसे प्रभावशाली सम्प्रदाय वही था।
__महात्मा बुद्धको निर्वाण-प्राप्ति जिस वर्ष बतायी जाती है, उसी वर्ष राजगृहकी सप्तपर्णी गुफामें बौद्ध साधुओंका प्रथम सम्मेलन हुआ, जिसे प्रथम संगीति कहते हैं। इसमें धम्म और विनयके पाठोंका संकलन किया गया।
१. श्रेणिक चरित्र, पुण्याश्रव कथाकोष । बौद्ध ग्रन्थों (अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा आदि) में लिखा है कि अजातशत्रुने अपने पिता बिम्बसारको मार दिया था। अजातशत्रुको उसके पुत्र उदयने, उदयको उसके पुत्र महामुण्डने, महामुण्डको उसके पुत्र नागदासने और नागदासको जनताने मार डाला ।-बुद्धचर्या-राहुलसांकृत्यायन, पृ. ४६१ । बौद्ध साहित्यके इसी अभिमतको कुछ इतिहासकारोंने सत्य मानकर अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत किया है। बौद्ध ग्रन्थोंकी इस धारणाका कारण खोजने पर हमें लगता है कि उनका कथन कल्पित है। श्रेणिक बिम्बसार उदारता वश तथागत बुद्धके पास जाता अवश्य था, किन्तु उसकी धार्मिक श्रद्धा तीर्थंकर महावीरके प्रति थी। अजातशत्रु ( कुणिक ) पहले भगवान् महावीरका भक्त था, किन्तु बादमें वह देवदत्तका अनुयायी बन गया था और उसीके परामर्शसे उसने अपने पिताको कारागारमें डाला था। ( अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा)। अजातशत्रु तथागत बुद्धका अनुयायी नहीं बना, यह बौद्धोंके 'सामञफल सुत्त'से भी स्पष्ट हो जाता है । उसमें लिखा है-"राजाके जानेके थोड़ी देर बाद भगवान्ने भिक्षुओंको सम्बोधित किया-"भिक्षुओ, यह राजा ( भाग्य ) हत है, उपहत है । भिक्षुओ ! इस राजाने यदि धार्मिक धर्मराजा पिताको जानसे न मारा होता तो इसी आसन पर इसे विरज विमल धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ होता।" (विरज विमल धर्मचक्षु उत्पन्न होनेका आशय बुद्ध,संघ और धर्मपर श्रद्धा । राजाको वह नहीं हुई। ) किन्तु बौद्ध ग्रन्थोंमें यह भी उल्लेख मिलते हैं कि तथागत बुद्धके परिनिर्वाणके बाद उनकी अस्थि-भस्मका विभाजन किया गया और वह आठ भागोंमें बाँटा गया । अजातशत्रुने एक भाग पाया, जिसपर राजगृहमें एक स्तूप बनवाया गया।