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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ बुद्धको मिली। इन दोनों लोकनायकोंमें जहाँ कुछ समानताएँ थीं, वहाँ मौलिक अन्तर भी थे। समानताएँ तो ये ही थी कि दोनों ही क्षत्रिय थे, दोनों ही राजवंशी थे, दोनों ही शोषणहीन, ऊँचनीच भावनाविहीन ऐसी समाजकी रचना करना चाहते थे, जिसका आधार अहिंसा हो । दोनोंने आभिजात्य वर्गकी समझी जानेवाली संस्कृत भाषाको छोड़कर अपने उपदेश जन-सामान्यकी भाषामें दिये। बुद्धने अपने उपदेशोंके लिए पालिको चुना। महावीरने सर्व-साधारणकी भाषा अर्धमागधीमें अपने सन्देश सुनाये। किन्तु दोनों महापुरुषोंमें समानताको अपेक्षा अन्तर अधिक रहा और वह अन्तर दृष्टिकोण, आदर्श और सिद्धान्तोंका रहा। बुद्धने मध्यम मार्ग चुना किन्तु महावीरने पूर्ण सत्यका आग्रह नहीं छोड़ा। यही कारण है कि महावीरने हिंसाके साथ जीवन-व्यवहारके किसी क्षेत्रमें समझौता नहीं किया और अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा की। जबकि बुद्ध अहिंसाके क्षेत्रमें कुछ दूर तक ही जा सके।
ऐसा लगता है कि सम्राट श्रेणिक अत्यन्त उदार शासक था। यही कारण है कि सभी धर्मनेताओंने राजगृह नगरको अपने प्रचारका केन्द्र बनाया था । यद्यपि श्रेणिक प्रारम्भिक जीवनमें बुद्धका अनुयायी था। किन्तु बादमें महारानी चेलनाके प्रयत्नसे उसकी आस्था जैनधर्मके प्रति हो गयी और वह भगवान् महावीरका अनुयायी हो गया। भगवान् महावीरका समवसरण (धर्मसभा ) अनेकों बार राजगृहीके विपुलाचल और वैभारगिरिपर आया और जब भी भगवान्का समवसरण वहाँ आया, श्रेणिक उनके दर्शन करने और उपदेश सुनने अवश्य गया। इतना ही नहीं, वह भगवान् महावीरके समवसरणका मुख्य श्रोता बन गया। उसने अनेक विषयोंपर जिज्ञासू भावसे भगवान्से हजारों प्रश्न किये। पुराण ग्रन्थोंमें किसी चरित्रके निरूपणकी प्रवृत्ति श्रेणिकके प्रश्न द्वारा ही होती है। कथाके मध्यमें भी हम श्रेणिकको कथासे सम्बन्धित अनेकों प्रश्न करते हए पाते हैं। जैन साहित्यमें श्रेणिकको क्या स्थान प्राप्त है. यह इस बातसे ही प्रकट है कि वह आगामी उत्सर्पिणी कालमें (आगामी) तीर्थंकर परम्परामें 'पद्मनाभ' नामसे प्रथम तीर्थंकर होनेवाला है।
श्रेणिकके कई पुत्र थे--अभयकुमार, वारिषेण, अजातशत्रु । इनमें अभयकुमार बहुत बुद्धिमान् और कुशल राजनीतिज्ञ था। वह वर्षों तक श्रेणिकके सान्धिवैग्रहिक पदपर भी रहा। किन्तु फिर उसने मुनि-दीक्षा ले ली। वारिषेण श्रेणिकका उत्तराधिकारी था, युवराज था और श्रेणिककी पट्टमहिषी चेलनाका पुत्र था। किन्तु वह प्रारम्भसे ही राज्यसत्ता और इन्द्रिय-भोगोंकी ओरसे उदासीन रहता था । अतः उसने एक दिन स्वेच्छासे राजपाट त्यागकर मुनि-जीवन अंगीकार कर लिया। अजातशत्रु जन्मसे ही उद्धत, जल्दबाज और महत्त्वाकांक्षी था । चम्पाको विजय करके श्रेणिकने अजातशत्रुको वहाँका उपरिक ( गवर्नर ) बना दिया था। किन्तु इससे उसकी महत्त्वाकांक्षा तृप्त नहीं हुई। वह शीघ्रसे शीघ्र मगध-सम्राट् बनना चाहता था 1
एक दिन किसी धर्मनेता द्वारा भड़काये जानेपर वह अपने कुछ विश्वस्त सैनिकोंको लेकर राजगह जा पहुंचा और उसने अपने वृद्ध पिताको कैद करके कारागारमें डाल दिया। वहाँ श्रेणिकको बिना नमककी कांजी और कोदों खानेको दिये जाते थे। वह अपने पिताको दुर्वचन भी कहता था । एक दिन अजातशत्रु भोजन कर रहा था कि उसके पूत्रने उसकी थाली में पेशाब कर दिया। पूत्र-मोहके कारण उसने थाली में चावल एक ओर करके खा लिये। पास ही उसकी माँ बैठी हुई थी । वह अपनी माँसे बोला-"माँ ! क्या मेरे समान कोई दूसरा व्यक्ति अपने पुत्रसे प्रेम करता होगा?" उसकी माँ बोली-'बेटा ! जितना प्रेम तू अपने पुत्रसे करता है, उतना ही तेरे पिता तुझसे करते थे। एक बार जब तू बालक था, तेरी अंगुली पक गयी थी। तू रोता था। तब तेरे