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चम्पापुरी
तीर्थक्षेत्र
चम्पापुर अत्यन्त प्राचीन तीर्थक्षेत्र है। यहां बारहवें तीर्थंकर भगवान् वासुपूज्यके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण इस प्रकार पाँचों कल्याणक हुए थे । केवल यही क्षेत्र ऐसा है, जहाँ किसी तीर्थंकरके पाँचों कल्याणक एक ही स्थानपर हुए। यह महान् सौभाग्य अन्य किसी नगरको प्राप्त नहीं हुआ। ऐसी पुण्य नगरियाँ तो हैं जहाँ किसी एक तीर्थकरके गर्भ, जन्म, दीक्षा
और केवलज्ञान ये चारों कल्याणक मनाये गये। किन्तु पाँचों कल्याणक केवल चम्पापुरमें ही हुए। इस दृष्टिसे इस नगरीको विशेष महत्त्व प्राप्त है।
भगवान् वासुपूज्य वर्तमान तीर्थंकर परम्परामें बारहवें तीर्थंकर हैं। उनके माता-पिता विजया और वसुपूज्य चम्पानगरके ( अंग देशके ) रानी-राजा थे। 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें वासुपूज्यकी जन्म सम्बन्धी आवश्यक जानकारी देते हुए आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं।
चंपाए वासुप पज्जणरेसरेण विजयाए।
फग्गुण सुद्ध चउद्दसिदिणम्मि जादो विसाहासु ॥ ४।५३७ अर्थात् वासुपूज्य चम्पा नगरीमें पिता वसुपूज्य तथा माता विजयासे फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशीके दिन विशाखा नक्षत्रमें उत्पन्न हुए।
वासुपूज्यके शरीरकी अवगाहना ७० धनुष थी। शरीरका वर्ण मूंगेके समान रक्तवर्ण था। उनकी प्रकृति संवेदनशील थी। जब वे यौवन अवस्थाको प्राप्त हए, तब माता-पिताने उनसे विवाह करनेका प्रस्ताव किया। अनेक राजा अपनी कन्याओंका सम्बन्ध लेकर आये। किन्तु संसारके प्राणियोंके साथ जिसकी भावनात्मक एकता स्थापित हो चुकी है और उनके दुःखोंकी निवृत्तिके सम्बन्धमें जिसका चिन्तन मूर्तिमान् रूप लेनेके सम्मुख है, उसे बन्धन क्योंकर रुचिकर होंगे। इसलिए उन्होंने अत्यन्त विनम्रता किन्तु दृढ़तासे विवाह करनेसे इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, उस आदर्श प्रेरित युवक प्रभुके सामने जब युवराज-पदका प्रस्ताव आया तो उन्होंने उस पदको भी अस्वीकार कर दिया। इसीलिए आचार्य यतिवृषभने उनके लिए कहा है
"पढम चिय परिहरिया रज्जसिरी वासुपुज्जेण ॥'' अर्थात् वासुपूज्य जिनेन्द्रने पहले ही राज्यलक्ष्मीको छोड़ दिया था। * जैन साहित्यमें चौबीस तीर्थंकरोंमें पाँच तीर्थंकरोंको पंचबालयति कहा है, जिन्होंने विवाह नहीं किया और कुमार अवस्थामें ही दीक्षा ले ली। ये पंचबालयति हैं-वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर।
____वासुपूज्य स्वामीका लाक्षणिक चिह्न भैंसा है, जो उनकी प्रतिमाओं पर रहता है। आप इक्ष्वाकुवंशके देदीप्यमान रत्न थे। १. तिलोयपण्णत्ति, ४।५९८ । २. तिलोयपण्णत्ति, ४।६७० ।
भाग २-८