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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ । महाजनपदोंकी चर्चा प्राचीन साहित्यमें आती है, उनमें भी अंग देश है। बुद्धके कालमें चम्पा भारतकी छह महानगरियोंमें से एक थी। चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी और वाराणसी ये छह महानगरियाँ थीं।
प्राचीन साहित्यमें अंग देश और उसकी राजधानी चम्पाका वर्णन बहुत मिलता है। प्राचीन अंग देश वर्तमान भागलपुर और मुंगेर जिलोंको मिलकर बनता था। यह राज्य अत्यन्त बल-वैभव सम्पन्न था। चम्पा अत्यन्त समद्ध नगरियोंमें से थी। इक्ष्वाकुवंशी राजाओंका चम्पाके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। उन्होंने हजारों वर्षों तक उसपर शासन किया है। भगवान वासुपूज्य भी इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न हुए थे।
- यहाँ अनेकों धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाएँ हुई हैं, जिनका सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है । यहाँ ऐसी कुछ घटनाओंका उल्लेख किया जा रहा है
(१) मिथिलाका राजा पद्मरथ एक बार सूर्याभनगरमें गया। वहाँ सुधर्म नामक गणधर विराजमान थे। राजा उनके दर्शनोंके लिए गया। उसने गणधरदेवके दर्शन किये और उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर उसे बड़ा सन्तोष और आनन्द हुआ। उसने बड़ी विनयके साथ कहा-'भगवन् ! क्या तीनों लोकोंमें कोई ऐसा व्यक्ति है जो आपके समान उपदेश दे सके।' गणधर बोले-हाँ ! हैं। मेरे समान नहीं, जगद्गुरु त्रिलोकपज्य भगवान वासपज्य चम्पामें हैं।' राजा बोला-'यदि वे आपसे भी बड़े हैं तो मैं उनके दर्शन अवश्य करूँगा।' राजाने यह कहकर भोगोपभोगोंका त्याग कर दिया और वह वहाँसे चल दिया।
मार्गमें विश्वानल देवने उसपर बड़े उपसर्ग किये। किन्तु विरागरंजित राजा रुका नहीं और वह त्रिलोकीनाथ वासुपूज्य स्वामी के चरणोंमें जा पहुँचा। इसे संसार, शरीर और भोगोंकी क्षणभंगुरताको देखकर बड़ा वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने भगवान्के पास जिनदीक्षा ले ली और शीघ्र ही वह द्वादशांगका वेत्ता होकर भगवान् वासुपूज्यका गणधर बना। अन्तमें गणधर पद्मरथ कर्मोंका नाश करके मुक्त हुए। हरिषेण कथाकोष-कथा ५१
(२) भगवान् वासुपूज्यके समयमें द्वारावतीमें द्वितीय बलभद्र अचल और नारायण द्विपृष्ट हए। जब द्विपृष्टने अपने शत्रु प्रतिनारायण तारकका संहार करके भरतक्षेत्रके तीन खण्डोंपर अधिकार कर लिया, उसके बाद वह भगवान् वासुपूज्यके समवसरणमें अनेक बार आया था। इतना ही नहीं, वह वासुपूज्य तीर्थंकरका मुख्य श्रोता माना गया है। अपनी अन्तिम अवस्थामें बलभद्र अचलने वासुपूज्यके चरणोम दीक्षा ली और तप करके मुक्ति प्राप्त की।
(३ ) चम्पानगरीका राजा मघवा था। उसकी रानीका नाम श्रीमती था। उनके गुणवान् आठ पुत्र और अत्यन्त रूपवती रोहिणी नामकी पुत्री थी। कार्तिककी अष्टाह्निकामें रोहिणी मन्दिर में जाकर प्रतिदिन पूजन करती थी। एक दिन राजाने उसे देखा तो उसे अनुभव हआ कि अब पूत्री सयानी हो गयी है। इसका विवाह कर देना चाहिए। यह सोचकर राजाने अपने मन्त्रियोंको बुलाकर परामर्श किया। मन्त्रियोंने विचारकर निवेदन किया कि महाराज ! राजकूमारीका स्वयंवर करना ही उचित होगा। राजाने सब राजाओंके पास दूत और पत्र भेजकर स्वयंवरका समाचार भिजवा दिया। यथासमय बड़े-बड़े राजा और राजकुमार सजधजकर स्वयंवरमें सम्मिलित हए। रत्नाभरणोंसे अलंकृत अनिन्द्य सुन्दरी रोहिणी अपनी धायके साथ
१. श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें इसे भगवान् वासुपूज्यका पुत्र बताया है।