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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ एक दिन वे संसारके स्वरूपके सम्बन्धमें चिन्तनमें लीन थे, तभी उन्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। सारी घटनाएँ उनके मानसपटल पर चित्रके समान स्पष्ट प्रतिभासित हो उठीं। जन्म-मरण, आदि-व्याधि, चिन्ता-शोक इन द्वन्द्वोंका नाम ही तो संसार है। जब संसारमें दुःख ही दुःख है तो फिर स्पृहा लायक यहाँ है ही क्या ? उन्हें दुखोंसे मुक्ति प्राप्त करनेकी इच्छा प्रबल हो उठी। उन्हें संसारके भोगोंसे विराग हो गया। तभी पाँचवें स्वर्गके ऊपर आठों दिशाओं में रहनेवाले क्षायिक सम्यग्दष्टि, एक भवावतारी और अत्यन्त विशद्ध परिणामवाले लौकान्तिक देव आये । उन्होंने प्रभुके विचारोंका समर्थन किया, सराहना की और अपने स्थानोंको लौट गये।
भगवान् दीक्षा लेनेके लिए तैयार हुए। चारों प्रकारके देव और इन्द्र वहाँ आये और भगवान्को अनर्थ्य शिविकामें ले चले। चम्पानगरके बाहर उद्यानमें, जो वर्तमान मन्दारगिरिपर था, पहुँचकर भगवान् शिविकासे उतर पड़े और पूर्वाभिमुख होकर 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर उन्होंने सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग कर अपने हाथोंसे केशलुंचन किया। 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें भगवान्के दीक्षा-कल्याणकके सम्बन्धमें लिखा है
फग्गुणकसणचउद्दसि अवरण्हे वासुपूज्जतवगहणं ।
रिक्खम्मि विसाखाए इगिउववासे मणोहरुज्जाणे ॥४॥६५५ अर्थात् वासुपूज्य जिनेन्द्र फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशीके दिन अपराह्न कालमें विशाखा नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यानमें एक उपवासके साथ तप ग्रहण किया। उनके साथ छह सौ छिहत्तर मुमुक्षुओंने भी दीक्षा ली थी।
भगवान्ने अगले दिन महीनगरके राजा सुन्दरके घर खीरसे पारणा किया। वे एक वर्ष तक तप करते रहे । वे विहार करते हुए पुनः मन्दारगिरिपर पधारे। यहां उन्हें पाटल वृक्षके नीचे माघ शुक्ला द्वितीया को अपराह्न कालमें विमल केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गयी। वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो गये । 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें इस सम्बन्धमें निम्नलिखित सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं
माघस्स सुक्कविदिए विसाहरिक्खे मणोहरुज्जाणे।
अवरण्हे संजादं केवलणाणं खु वासुपुज्जम्मि ॥४।६८९ अर्थात् वासुपूज्य जिनेन्द्रको माघ शुक्ला द्वितीया के दिन अपराह्न कालमें विशाखा नक्षत्रके रहते मनोहर उद्यानमें केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
सभी देव और इन्द्र चलकर मन्दारगिरि पहुँचे। वहाँ उन्होंने भगवान्को नमस्कार किया और उनके ज्ञानकल्याणककी पूजा की। इन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने समवशरणकी रचना की और इस पर्वतसे भगवान्की दिव्य ध्वनिकी पावन गंगा प्रवाहित हई जिसमें अवगाहन करके भव्य प्राणियों ने आत्म-कल्याण किया।
भगवान् संसारका कल्याण करते हुए चम्पानगरीमें पधारे। जब आयुकर्मका अन्त निकट था, तब आपने योग निरोध किया और शेष अघातिया कर्मोंका नाश करके अशरीरी सिद्ध परमात्मा बन गये । इस सम्बन्धमें 'तिलोयपण्णत्ति' ग्रन्थमें निम्नलिखित उल्लेख मिलता है
फग्गुणबहले पंचमिअवरण्हे अस्सिणीस चंपाए।
रूपाहियछसयजुदो सिद्धिगदो वासुपुज्जजिणो॥४।११९६ वासुपूज्य जिनेन्द्र फाल्गुन कृष्णा पंचमीके दिन अपराह्न कालमें अश्विनी नक्षत्रके रहते चम्पापुरसे सिद्धि ( सिद्धगति ) को प्राप्त हुए। उनके साथ छह सौ एक मुनियोंने भी निर्वाण प्राप्त किया।
भगवान् निर्वाण-लाभके समय पल्यंकासनसे विराजमान थे।