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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ स्वयंवर-मण्डपमें आयी। उसकी रूप-छटा और सौन्दर्यको देखकर उपस्थित जन विस्मयविस्फारित नयनोंसे उसे निहारते रह गये। धात्री क्रम-क्रमसे राजाओंका परिचय कराती जा रही थी।
हस्तिनापुरके राजा वीतशोकका पुत्र अशोक भी प्रत्याशी राजकुमारोंमें बैठा हुआ था। वह रूपमें कामदेवके समान सुन्दर था। जब धात्रीने उसका परिचय कराया तो रोहिणी उसकी रूप-सुधाका पान करके वहीं चित्रलिखित-सी खड़ी रह गयी। बरबस उसके हाथ उठे और वरमाला राजकुमार अशोकके गले में डाल दी। राजकुमारीके इस चुनावकी सबने सराहना की। दोनोंका विवाह हो गया। वर-वधूका यह युगल ऐसा प्रतीत होता था, मानो साक्षात् कामदेव और रति ही हों।
दोनोंका जीवन आनन्द और विलासमें बीतने लगा। एक दिन उल्कापात देखकर महाराज मघवाको संसारको क्षणभंगरताका बोध हआ। उसे संसारसे वैराग्य हो गया। राजकुमारका राज्याभिषेक करके उसने हस्तिनापुरके निकटस्थ अशोक वनमें गुणधर मुनिराजके पास जाकर मुनि-दीक्षा ले ली और घोर तप करने लगा। अन्तमें सम्पूर्ण कर्मोका नाश करके वह संसारसे मुक्त हो गया।
रोहिणीके आठ पुत्र और चार पुत्रियाँ हुईं। सबसे अन्तमें पुत्र हुआ, जिसका नाम लोकपाल रखा गया। एक दिन राजपथपर कुछ स्त्रियाँ रोती और छाती कूटती हुई आ रही थीं। अशोक और रोहिणी महलोंको छतपर बैठे प्रकृतिका सौन्दर्य देख रहे थे। अकस्मात् रोहिणीकी दृष्टि शोकाकुल उन स्त्रियोंकी ओर गयी। उन्हें देखकर रोहिणीको बड़ा कुतूहल हुआ। उसने अपनी धाय माँसे पूछा-'माँ ! ये स्त्रियाँ कौन-सा नाटक कर रही हैं ?'
धायको यह सुनकर क्रोध आ गया। वह रोबसे बोली-'पुत्री ! क्या दुखियोंके दुःखका उपहास करना तुझे योग्य है ? यह नाटक नहीं है। अपने किसी प्रियजनके वियोगसे ये सब शोकाकुल हैं और अपना दुःख प्रकट कर रही हैं।'
___ यह सुनकर रोहिणी इस अश्रुतपूर्व बातपर और भी अधिक विस्मित हुई। वह कहने लगी-'धाय माँ ! तुम रोष क्यों करती हो। मैं तो यह भी नहीं समझती कि शोक और दुःख किसे कहते हैं।'
____ महाराज अशोक इस वार्तालापको सुन रहे थे। उन्होंने कहा-'रोहिणी! दुःख और शोक क्या होता है, यह तुम इस प्रकार नहीं समझ सकोगी। मैं तुम्हें समझाता हूँ।' ऐसा कह उन्होंने रोहिणीकी गोदमें-से पुत्र लोकपालको लेकर नीचे फेंक दिया। किन्तु रोहिणीके मनमें न कोई भयका भाव था, न आतंक का। जिसके पास पुण्यका कोष है, वह भयभीत क्यों हो। बच्चा ज्यों ही फेंका, देवताओंने उसे बीचमें ही थाम लिया और अशोक वृक्ष और उसके ऊपर सिंहासन रचकर बालकको उसपर बैठा दिया और उसका अभिषेक करने लगे। देवोंने वहाँ जंगलमें चार जिनालय भी बना दिये।
एक दिन दो चारण मुनि उस अशोक वनमें पधारे। राजा उनके दर्शनोंके लिए गया। राजाने रूपकुम्भ नामक मुनिराजसे पूछा-"भगवन् ! रोहिणीने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था, जिसके कारण इसे इतना रूप और सुख मिला है।" मुनिराजने अवधिज्ञानसे जानकर उत्तर दिया-"पहले एक भवमें यह पूतिगन्धा नामकी कन्या थी। इसके शरीरसे भयानक दुर्गन्ध आती थी। एक बार इसने पूर्वजन्ममें एक मुनिको भयानक कष्ट दिया था, जिससे अनेक दुर्गतियोंमें पडकर यह प्रतिगन्धा नामकी कन्या हई थी। तब एक मनिराजसे इसने इस दुर्गन्धिका कारण और उसकी निवृत्तिका उपाय पूछा। मुनिराजने इसे पूर्वभवोंकी बात बताकर उपाय बताया कि