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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ (५) चम्पानगरीमें शूरसेन राजा राज्य करता था। वहाँ भानुदत्त नामका एक सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम था सुभद्रा। उनके चारुदत्त नामका इकलौता पुत्र था। जब वह विवाह योग्य हुआ तो माता-पिताने उसका विवाह कर दिया। किन्तु वह इस अवस्थामें भी विषयभोगोंसे अनभिज्ञ था। जब कुछ दिन इसी प्रकार बीत गये, तब उसकी माताको चिन्ता हई। तब उसे विषयोंकी तरफ प्रवृत्त करनेके लिए दुराचारी पुरुषोंकी संगतिमें डाल दिया । परिणाम यह हुआ कि वह वेश्यागामी हो गया । धीरे-धीरे उसका प्रेम एक वेश्यासे हो गया, जिसका नाम था . वसन्तसेना।
___ अब वह उसी वेश्याके यहाँ रहने लगा। जितने धनकी आवश्यकता होती, वह लिखकर भेज देता और घरसे रुपया आ जाता। जब घरमें रुपया समाप्त हो गया तो आभूषण मँगाने लगा। स्थिति यह हो गयी कि घरमें न पैसा रहा, न जेवर । उसका पिता इसी शोकमें मर गया। माँ और स्त्री भूखों मरने लगे। धन बन्द हो जानेपर वेश्याने भी उसे अपने घरसे निकाल दिया।
मानित चारुदत्त घर आया। उसने घरकी दुरवस्था देखी तो उसे बड़ा शोक हआ और अपनी माता तथा स्त्रीको आश्वासन देकर वह व्यापारके लिए परदेश चला गया। कई बार उसे दुर्भाग्यका सामना करना पड़ा। एक बार व्यापारके लिए कपास लेकर चला जा रहा था । जंगलमें पहुँचनेपर देखा कि दावाग्नि लगी हुई है। इतनेमें एक चिनगारी आकर कपासमें आ पड़ी। देखते-देखते सारा कपास भस्म हो गया। - इसी प्रकार एक बार खूब धन कमाकर वह जहाजमें सामान भरकर घरकी ओर रवाना हुआ। मार्गमें जहाज किनारेसे टकराकर डूब गया। किन्तु ऐसी आपत्तियोंसे भी वह घबड़ाया नहीं। उद्यम करता रहा और सफल हआ। वह प्रचर धन कमाकर घर लौटा और अपनी माता तथा स्त्रीके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा। अन्तमें वह मुनि-दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा। उसके प्रभावसे उसने स्वर्गोंके सुख प्राप्त किये।
-हरिषेण कथाकोष-कथा ९३ (६) भगवान् मुनि सुव्रतनाथके तीर्थमें हरिषेण चक्रवर्ती हुआ। यह कम्पिलाके राजा सिंहध्वजका पुत्र था। इसने चम्पाकी राजकुमारी मदनावलीसे विवाह करके अपनी ९६००० रानियोंमें उसे पट्टमहिषीका पद दिया। हरिषेण कथाकोष-कथा ३३
(७) चम्पानगरके धर्मघोष नामक एक श्रेष्ठीने मुनि-दीक्षा ले ली। वे मासोपवासी थे। एक दिन वे पारणाके लिए नगरकी ओर आ रहे थे किन्तु मार्गमें घास उग रही थी। अतः वे गंगाके किनारे एक वटवृक्षके नीचे बैठ गये। उनकी तपस्यासे प्रभावित होकर वहाँ गंगाकी अधिष्ठात्री देवी आयी। उसने मुनिको नमस्कार किया तथा यह जानकर कि इस समय मुनिको प्यासकी बाधा है, भक्तिसे जलसे भरा एक कलश लाकर बोली-'मुनिराज ! आप इस कलशका जल पीकर अपनी तृषा शान्त कीजिए।' मुनि बोले-'देवी ! यह हमारे आचारके विरुद्ध है। हम तुम्हारे हाथका जल पीनेमें असमर्थ हैं।'
देवीको यह सुनकर कुतूहल हुआ-भयंकर प्यासकी बाधा, किन्तु मेरे हाथसे मुनि जल क्यों नहीं ग्रहण करते। वह पूर्वविदेहमें तीर्थंकरके पास गयी और उनसे यही प्रश्न किया। भगवान् तीर्थंकर बोले-'मुनिजन देव-देवियोंका लाया हुआ आहा !-जल ग्रहण नहीं करते। देवदेवियाँ तो मुनियोंकी पूजा, प्रातिहार्य आदि कार्य कर सकते हैं।'
तीर्थंकरकी अमृतवाणी सुनकर गंगादेवी गंगातटपर आयी। उसने भक्तिके साथ मुनिके ऊपर शीतल जलकी वर्षा की। मुनि शुक्लध्यानमें स्थित थे। उन्होंने घातिया कर्मोका नाश करके