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बिहार-बंगाल - उड़ीसा के दिगम्बर जैन तीर्थं
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'विणीए णाए णायपुत्ते णायकुलचन्दे विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसेवासाई विदेहंसि कट्टु ।'
इसी प्रकार आचारांग सूत्रमें उपर्युक्त पाठसे मिलता-जुलता पाठ इस प्रकार मिलता है'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे णाय णायपुत्ते णायकुलचन्दे णायकुलवित्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहमुमाले तीसवासाइं विदेहत्तिकट्टु आगारमज्झे वसित्ता -
इन अवतरणोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि महावीर ज्ञातृकुलमें उत्पन्न हुए थे, वे विदेहके रहनेवाले थे, विदेहके दौहित्र थे और उनकी माता त्रिशला विदेहदत्ता कहलाती थीं ।
श्वेताम्बर सूत्र साहित्य में कुण्डग्राम, क्षत्रियकुण्ड, उत्तरक्षत्रियकुण्डपुर, कुण्डपुर सन्निवेश, कुण्डग्राम नगर, क्षत्रियकुण्डग्राम आदि अनेक नाम उनके जन्म-नगरके मिलते हैं, किन्तु वे सब एक ही नगर के नाम हैं । यहाँ तत्सम्बन्धी कुछ उद्धरण दिये जा रहे हैं । इनसे भगवान् महावीरके जन्म-स्थानके सम्बन्ध में अपना अभिमत निश्चित करनेमें सहायता मिलेगी ।
'उत्तरखत्तियकुण्डपुरसंणिवे संमि..........
- आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध, भावनाख्य चतुर्विंशतितम अध्ययन | - कल्पसूत्र द्वितीय क्षण । संख्या २१, २६, २८, ३०, ३२ —कल्पसूत्र ५।१०० - आचारांग २ २४ २८
'खत्तियकुण्डग्गमे णय रे.. ‘कुण्डग्गामे णयरे ं 'उत्तरखत्तियकुंडपुर संणिवेसस्स......'
'ज्ञातमस्तीह भरते महीमण्डलमण्डनम् ।
- त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित १०|३
क्षत्रियकुण्डग्रामाख्यं पुरं मत्पुरसोदरम् ॥' इन अवतरणोंके प्रकाशमें उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर या कुण्डग्राम ही भगवान्की जन्म-नगरी है, यह सुस्पष्ट हो जाता है । यह नगर विदेहमें स्थित था, यह हम पहले सिद्ध कर चुके हैं । इस नगरकी विशेषता बताते हुए हेमचन्द्राचार्यने जो बातें लिखी हैं, वे विशेष ध्यान देने योग्य हैं
'स्थानं विविधचैत्यानां धर्मस्यैकनिबन्धनम् । अन्यायैरपरिस्पृष्टं पवित्रं तच्च साधुभिः ॥ मृगयामद्यपानादिव्यसनास्पृष्टनागरम् । तदेव भरतक्षेत्र पावनं तीर्थं वद् भुवः ॥'
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अर्थात् यह नगर नाना प्रकारके चैत्योंका स्थान था । धर्मका साधनभूत था । यहाँ अन्यायोंका तो स्पर्शं भी नहीं था । साधुओंसे यह पवित्र था । यहाँके निवासियोंको शिकार, मद्यपान आदि व्यसनोंका स्पर्श तक नहीं था । वह नगर वास्तवमें भरतक्षेत्रको पवित्र करनेवाला पृथ्वीका मानो तीर्थक्षेत्र ही था ।
कुण्डपुरकी यह स्तुति कोरी शिष्टाचारपरक सामान्य प्रशंसा नहीं है । आचार्यने इसमें नगरव्यापी वास्तविकतापर ही प्रकाश डाला है । जिस नगर में लोकोत्तर महनीय पुरुष तीर्थंकर जन्म लेनेवाले हैं, वह नगर पवित्र होना चाहिए, धार्मिक जनोंका केन्द्र होना चाहिए और वहाँ के जनोंमें आचार और विचारकी शुद्धि होनी चाहिए। कुण्डपुर उस कालमें ऐसा ही पवित्र नगर था ।
१. आचारांगसूत्र - श्रुतस्कन्ध २ अध्याय २४ ।
भाग २-३