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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ इसी प्रकार जिन्हें पीत वर्ण प्रिय था, उनके वस्त्र, घोड़े, उनकी लगाम, चाबुक, अलंकार, मुकुट, छत्र, तलवारकी मूंठ, मणि, पादुका और हाथकी पंखी पीत वर्णकी होती थी।
जिनकी अभिरुचि श्वेत वर्णमें थी-उनके वस्त्र, घोड़े, लगाम, चाबुक, अलंकार, मुकुट, छत्र, तलवार की मूंठ, मणि, पादुका और हाथकी पंखी श्वेत होते थे।
जो लोग हरित वर्ण पसन्द करते थे, वे अपनी वस्त्र-सज्जा, घोड़े, लगाम, चाबुक, अलंकार, मुकुट, मुकुटकी मणि, छत्र, तलवार की मूंठ, पादुका और हाथका पंखा तक हरित वर्णके रखते थे।
_ और जिन्हें नील वर्ण प्रिय था, वे वस्त्र और अलंकार नील वर्णके धारण करते थे, उनके घोड़े, उनकी लगाम और चाबुक तक नीले वर्णके होते थे। वे मुकुट भी नीले रंगके धारण करते थे। मुकुटकी मणियाँ भी नीले वर्ण की होती थीं। छत्र भी नीला, तलवारकी मुंठ भी नीली, मूंठमें जड़ी मणि भी नीली, पादुकाका रंग भी नीला, हथपंखी भी नीली।
___ इससे लगता है कि लिच्छवी कितने शौकीन, रंगीन मिजाज, फैशनपरस्त और अभिरुचिसम्पन्न थे। उनका जीवन अत्यन्त सुरुचिपूर्ण और उल्लासमय था।
लिच्छवी उत्सवप्रिय थे। उनके यहाँ सदा कोई न कोई उत्सव होता ही रहता था। शुभरात्रिका उत्सवमें खूब गीत-नृत्य होते थे । वाद्य-यन्त्र बजाये जाते थे। पताकाएँ फहरायी जाती थीं। राजा, सेनापति, युवराज सभी इसमें सम्मिलित होते थे और सारी रात मनोरंजन करते थे। .
वे ललितकलाके बड़े शौकीन थे । चैत्य और उद्यान बनवानेका उन्हें बहुत शौक था।
उनको बुद्धके प्रति श्रद्धा नहीं थी और वे चैत्योंको मानते थे। वे आत्माके सम्बन्धमें सांख्य और वेदान्तसे भिन्न विचार रखते थे। वे आत्मा, नरक आदिमें विश्वास करते थे। वे बहुत सुन्दर खिलाड़ो थे। वे तेजतर्रार, स्वाभिमानी और गरम मिजाजके थे। उनमें अपना अपराध स्वीकार करनेका नैतिक साहस था।
लिच्छवियोंमें परस्परमें बड़ा प्रेम और सहानुभूति थी। यदि एक लिच्छवी बीमार पड़ जाता था तो दूसरे लिच्छवी उसे देखने आते थे। किसी लिच्छवीके घरमें कोई उत्सव होता तो सभी लिच्छवी उसमें सम्मिलित होते थे। अगर कोई विदेशी राजा लिच्छवी भूमिमें आता तो सारे लिच्छवी उसके स्वागतको जाते।
युवक वृद्धजनों की विनय करते थे। स्त्रियोंके साथ बलात्कार नहीं होता था। वे प्राचीन धार्मिक परम्पराओंका निर्वाह करते थे। सभी लिच्छवियोंकी धार्मिक निष्ठा निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन धर्मके प्रति थी और वे उसका बराबर पालन करते थे। एक बार स्वयं बुद्धने वज्जीसंघके सेनापति सिंहसे कहा था-'सिंह ! तुम्हारा कुल दीर्घ कालसे निग्गंठों ( निर्ग्रन्थों ) के लिए प्याऊकी तरह रहा है। किन्तु वे लोग इतने उदार भी थे कि वैशालीमें बुद्ध, मक्खलीपुत्त गोशाल, संजय वेलट्टिपुत्त आदि जो भी तीथिक आते थे, उनके प्रति भी वे सम्मान प्रकट करते थे, उनके भोजननिवास की व्यवस्था करते थे। किन्तु उनकी धार्मिक श्रद्धा तो केवल निग्गंठनातपुत्त महावीरके प्रति ही थी।
8. The Life of Buddha, by Rockhill, p. 63 P. Beal's Life of Hiuen Tsiang, Introduction, p. XXIII. ३. Tr. B. M. Barua, Petavatthu, p. 46. ४. चुल्लवग्ग । ५. सुमंगलविलासिनी। ६. सीह सुत्त ।